________________
अनन्त अनुकम्पा, करुणा, अहिंसा, प्रेम प्रवाहित करती हुई प्रकट हुई हैं। वे यावत् चराचर प्राणिमात्र की अभय-शरणदायिनी माता हैं। यही तो आद्याशक्ति आत्म-तत्त्व हैं। इनके पादप्रान्त में महालिंगाधिष्ठित जो विश्वनाथ बैठे हैं, यही विश्व-तत्त्व हैं। भगवती के भामण्डल में अनेकान्तिनी पदार्थ-प्रमा का सूर्य उद्योतमान है। संक्ति-रूपा भगवती में वस्तु मात्र के सारे भाव समन्वित रूप से विग्रहीत हुए हैं।... ___...धूर्जटी के जटाजाल में भगवती अहिंसा के चरणों से करुणा की गंगा अजस्र प्रवाहित हैं। और उस पर सर्वआप्यावनकारी विश्वधर्म का शीतल चन्द्रोदय हुआ है।... ____ शिवो भूत्वा शिवं यजेत....!!'–फिर स्वयम्भू देवाधिदेव के लिंग में से उद्बोधन सुनाई पड़ा ।..."अरे ओ कुमार-योगी, निर्ग्रन्थ होकर मुझे अपने पिण्ड में उदरस्थ कर । द्वैत का विकल्प त्याग, और मुझे पहचान : मैं ही त है...शिवोऽहं...शिवोऽहं ! अरे शिव-स्वरूप होकर, शिव का यजन कर, भजन कर, भोजन कर। तेरो नहाव्याधि का एक मात्र शानक मैं हूँ।... मैं, जो अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों की बुभुक्षा और भोजन एक साथ हूँ। यह महामोदक भी मेरा ही ब्रह्माण्डीय विग्रह है। अविलम्ब तू इसे ग्रहण कर,
और मद्रूप, तद्रूप, चिद्रूप हो जा रे समन्तभद्र !...शिवोऽहं...शिवोऽहं... शिवोऽहं...!"
समन्तभद्र गहन भाव-समुद्र में डूब गये। कविकल्प ये आगे बढ़े। ...सहसा ही लिंगासीन विश्वनाथ ने उन्हें अपनी मोद में धारण कर लिया।
और स्वयं शिव-स्वरूप होकर समन्तभद्र वह पहामधुगोलक प्राशन करने लगे।...अपूर्व तृप्तिकर है इसका स्वाद। परम शामक है इसकी माधुरी। द्रव्य के अनन्त गुण और पर्याय मानो इसमें एक साथ ही आस्वादित हो रहे हैं। इस भोजन-प्रक्रिया में सहज ही निखिल का अवबोधन हो रहा है।
और निःशेष मधुगोलक उदरस्थ कर वे निर्विकल्प ध्यान-समाधि में आत्मस्थ हो गये।
....नौ दिन तक यह अनुष्ठान अबाधित चलता रहा। समन्तभद्र परिपूर्ण
अनेकान्त चक्रवती : भगवान सपन्तभद्र : 131