Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 126
________________ "आयुष्यमान वाराणसीपति महाराज शिवकोटि से जाकर कहो कि इसी क्षण से प्रति रात्रि विश्वेश्वर, द्राक्षा- मेवा केशरयुक्त पर्वताकार महामोदक का परिपूर्ण भोग ग्रहण करेंगे। जानो कि मेरे मुख से वही बोल रहे हैं। अवलम्ब आयोजन हो । मुहूर्त नहीं टलना है। मध्यरात्रि के मंगल- मुहूर्त में आज ही रात आदिनाथ महादेव यह अनुग्रह आरम्भ कर देंगे । मन्दिर में और कोई न रह सकेगा। कपाट भीतर से मुद्रित हो जाएँगे ।" ... पुजारी के मुख से यह प्रसंग और प्रस्ताव सुनकर महाराज शिवकोटि स्तम्भित हो रहे। उन्हें अनायास प्रत्यय हो गया कि निश्चय ही साक्षात् विश्वनाथ मानव-देह में पिण्ड-ग्रहण करने आये हैं ।... विद्युदुद्वेग से राजाज्ञा का पालन हुआ। और ठी मध्यरात्रि के शुभ लग्न में शक प्रकाण्ड केशर - मेवा - सुवासित मधु-गोलक चाँदी के महाधाल में प्रस्तुत हुआ । समन्तभद्र ने समाधि- मुद्रा से किंचित् पलक उठाकर पुजारियों और रक्षकों को चले जाने को इंगित कर दिया। फिर उठकर मन्दिर के कपाट चारों ओर से मुद्रित कर लिये । 'शिवोऽहं... शिवा.हं...' उनके प्रत्येक श्वास में उच्छ्वसित हो रहा था। निबिड़ पुष्प-सौरभ स देव-कक्ष व्याकुल था। सुवर्ण के विशाल दीपाधार में सौ-सौ दीपशिखाएँ अकम्प लौ से बल रही थीं। धूपबत्तियों की अगुरु- कस्तूरी सुगन्ध में से एक अनाहत नीरवता प्रसारित हो रही थी 1... समन्तभद्र ने चहुंओर निहारा। दीवारों और गुम्बद में से जैसे ध्यन्यायमान हुआ 'शिवो भूत्वा शिवं यजेत्' : 'स्वयं शिवरूप होकर शिव का भजनपूजन कर !' और उनके रोम-रोम में संचरित था 'शिवोऽहं शिवोह ... शियोऽहं....' ... I ....उन्हें साक्षात्कार हुआ कि यह अनादिकाल का स्वयम्भू शिवलिंग ही स्वयं ब्रह्माण्ड है । यह महामधु-गोलक ही स्वयं ब्रह्माण्ड है । विश्व-तत्त्व ने इनमें रूप परिग्रह किया है। सामने ऊपर को रत्नजटित आलय में विराजमान हैं जगदम्बा पार्वती ....अरे मेरी भगवती आत्मा ही तो उनमें 150 एक और नीलांजना

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