________________
अपनों से, आत्मीयों से तुझे तनिक मी ममता नहीं क्या ?" ___"हां हां, हैं क्यों नहीं। सव ओर स्वजन, परिवार ही तो हैं, मौसी।
और उत्सब भी, देखो न, सदा चारों ओर है। अब अलग-अलग कहाँ कहाँ जाऊँ...।
"और सुनता हूँ मौसी, तुम भी तो खास कहीं जाती-आती नहीं। आरोपी में अकेला नहीं हूँ...!"
"...देख न, मैं आयी हूँ कि नहीं....."
"सो तो देख रहा हूँ। मेरे पास आयी हो न, मेरा अहोभाग्य ! लेकिन और भी सब जगह जाती हो क्या ?"
"वैशाली में ही आ जाती हैं मेरी सारी दीदियाँ । छोटी हूँ न, सबकी लाड़ली, सो मेरा मान रख लेती हैं...!" ___तो ठीक है, मेरा मान तुमने रख लिया। किसी का लाइला तो मैं भी हो ही सकता हूँ।" ___ “पागल कहीं का...! उम्र में तुझसे छोटी हूँ तो क्या हुआ। मौसी हूँ तेरी, तो बड़ी ही हूँ तुमसे 1 है कि नहीं...?" । ___"बड़ी तो तुम आदिकाल से हो मेरी । यह छत्र-छाया सदा बनाये रखना मुझ पर, तो किसी दिन इस दुनिया के लायक हो जाऊँगा...?" एकटक मुझे देखती, वे ममलायित हो आयीं।
"सुनती हूँ, जंगलों-पहाड़ों की खाक छानता फिरता है। पर न अपने से कोई सरोकार, न अपनों से। किसी से कोई ममता-माया नहीं ?"
"देखो न मौसी, सबसे ममता हो गयी है, तो क्या करूँ। अलग से फिर किसी से ममता या सरोकार रखने को अवकाश कहाँ रह गया ?"
"सो तो पता है मुझे, तू किसी का नहीं। अपनी जनेता माँ का ही नहीं रहा !..जीजी की आँखें भर-भर आती हैं !..."
"तो प्रकट है कि उनका भी हूँ ही। पर उन्हीं का नहीं हूँ, सबका हूँ-तो यह तो स्वभाव है मेरा। इसमें मेरा क्या वश है, मौसी !"
"मान...!"
जब पुकारोगी, आऊँगा : 139