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तृप्ति लाभ कर स्वस्थ हो गये। उन्हें कुछ ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे सर्वकाल के लिए क्षुधा-जय हो गया।
दसवें दिन प्रातःकाल महामधुगोलक का नैवेद्य, अछूता और अखण्ड प्रसाद होने के लिए, मन्दिर-द्वार पर ला रखा गया।..एक ब्रह्माण्ड सहसों लड्डुओं में बँटकर जन-जन के हाथों में पहुँच गया। राजा शिवकोटि स्वयं पालकी पर चढ़कर आये और विश्वेश्वर के स्वयं शिव-स्वरूप महायाजक का दर्शन कर वे कृतकृत्य हो गये। समन्तभद्र ने उन्हें आशीर्वाद दिया : "सत्य लाभ करो आयुष्यमान् !"
धर्म के मर्म से अनभिज्ञ, एक अन्य साम्प्रदायिक युबक कुटिल विद्वेष से प्रेरित होकर गत नौ दिनों में हर रात चुपचाप आकर मन्दिर में छुप रहता था। उसने देखा था कि समन्तभद्र स्वयं लिंगासीन होकर निःशेष महामोदक भक्षण कर जाते हैं। शिवभाव से भावित हुए बिना वह इस निगूढ़ शिवलीला का रहस्य समझने में असमर्थ था। सो उसने द्विष्ट होकर यही अर्थ लगाया कि समन्तभद्र अब तृप्त हो गये हैं, सो महामोदक को प्रसाद बनाकर गौरव ले रहे हैं। उसने राजा को जाकर यह तथ्य बताया, और कहा कि यह कोई शिवद्रोही, अन्य धर्मावलम्बी, भस्मक व्याधि से पीड़ित बटोही जान पड़ता है। धूर्त और प्रबंधक इस बुभुक्षु ने शिव को नैवेद्य ग्रहण कराने का ढोंग रचकर स्वयं अपनी उदरपूर्ति की है। बात सटीक बैठी। भोला राजा बहकावे में आ गया। राजाज्ञा हुई : "आगन्तुक नवयाजक की परीक्षा ली जाए। वह राजा और समस्त लोकजन के समक्ष भगवान विश्वनाथ का बन्दन करे, उनके चरणों में साष्टांग प्रणिपात करे ।...नहीं तो उसका शिरच्छेद कर दिया जाए...!"
...सुनकर समन्तभद्र तपाक से तेजोमण्डल विस्तारित करते हुए राज-दरबार में आ उपस्थित हुए। बोले कि :
192 : एक और नीलांजना