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तो कोई जैन क्षपणक जान पड़ता है।... प्रवंचक... धूर्त !... शिरच्छेद हो इसका...!"... किन्तु राजा शिवकोटि के कान शब्द नहीं सुन रहे थे उनका हृदय मर्म से भावित हो रहा था। वे मुग्ध और तन्मय होकर योगी की उस सोऽहं भाविनी वन्दना की मुद्रा के साथ तदाकार हो गये थे।... सो पण्डित - मण्डली का क्षोभ - कोलाहल भी उससे उत्तरोत्तर दबता चला गया। सात तीर्थकरों की स्तुति समाप्त कर समन्तभद्र आठवें तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभ का चाँदनी- शीतल कण्ठ से स्तवन करने लगे :
"चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्रं द्वितीयं जगतीव कान्तम्, वन्देऽभिवन्द्यं महतामृषीन्द्रं जिनं जितस्वान्तकषायबन्धम् । यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेशभिन्नं तपस्तपोरेरिव रश्मिभिन्नम्, ननाश बाह्यं बहुमानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ।" ...इस अविरल बहती वाग्धारा के भक्ति-माधुर्य से तमाम उपस्थित मानव-मण्डल मन्त्रमोहित और स्तम्भित हो रहा ।
... सहसा ही भूगर्भ में घनघोर गर्जना - सी होने लगी । फिर अगोचर में कहीं जैसे उल्कापात का वज्रनिनाद-सा हुआ ।... और तत्काल एक प्रचण्ड विस्फोट ध्वनि के साथ स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग प्रस्फुटित हुए, और उनके शिखान पर भगवान् चन्द्रप्रभ का अतीव मनोज्ञ चन्द्र-धवल विग्रह अर्हत् मुद्रा में प्रकट हुआ। अनेकान्त की कोटि-कोटि किरणों में विच्छुरित, भगवान् का यह चन्द्रमौलीश्वर स्वरूप साक्षात् करके, हजारों कण्ठों से ध्वनित हुआ :
"भगवान् चन्द्रप्रभ की जय...
भगवान् चन्द्रमौलीश्वर की जय...!"
समन्तभद्र ने साष्टांग प्रणिपात में नमित होकर 'एकमेवाद्वितीय' भगवान् का वन्दन किया। फिर निरन्तर बढ़ती जयकारों के बीच उन्होंने आदिनाथ वृषभेश्वर के चन्द्रशेखर स्वरूप के समक्ष, चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन समाप्त किया। और 'शिवोऽहं... शिवोऽहं...' की मन्त्र - ध्वनि के साथ वे फिर एक बार अनैकान्तिक पारमेश्वरी सत्ता के सम्मुख नमित हुए ।
134 एक और नीलांजना