Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 121
________________ का तारनहार बन ही वयं आज उसका मारहा होका ला दिया का उलंग ताण्डव-नृत्य कर रहा है। तेरी अनेकान्तिनी सरस्वती के चरणों में विश्वम्भरा पो अहिंसा साक्षात् रूप-परिग्रह करेंगो। उनकी गोद में आर्यावर्त के कोटि-कोटि जन-मानव और तिर्यच प्राणी तक परम अभय और सत्य-ज्ञान की निर्मल द्रष्टि प्राप्त करेंगे....." ___"लेकिन गुरुनाथ, इत आपत्काल में पहाव्रती मुनिचर्या का निर्वाह कैसे हो...?" "अरे त्याग दे रे यह वेष ! आफ्ध र्म का यही विधान है। अरे दिगम्बर, तू वेष का बन्धन पालने के लिए हुआ है, कि सारे परिग्रहों के बन्धन काट देने के लिए हुआ है । समन्तभद्र की आत्म-विमा वेष से ऊपर है। कोई भी बाम येष उसको अन्तस्य निग्रंन्य ज्योति को मलिन और आच्छन्न नहीं कर सकता। ओ रे आयुष्यमान्, तू तो परम अवधूतेश्वर भगवान आदिनाथ का वंशज है। विधि-निषेध से परे, तेरे भीतर परमहंस अरिहन्त की ज्योति झलमला रही है। सारी वर्जनाओं का विकल्प त्याग कर, अपने स्वतन्त्र आत्म-द्रव्य के परिणमन में, तू निबन्ध विचरण कर, समन्तभद्र। अपनी आत्मस्थिति और देहस्थिति के वर्तमान परिणमन पर एकाग्र दृष्टि रखकर तू द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुरूप निर्ग्रन्थ और निर्द्वन्द्व चर्या कर । जा रे अवधूत जा, अपनी महावेदना के पथ पर अकुण्ठ प्रस्थान कर । जहाँ भी तेरी भस्मक च्याधि का शामक परिपूर्ण भोजन तुझे मिले, उसे तू सहर्ष अंगीकार कर ।...जहाँ तेरा माथा झुकेगा, वहीं अरिहन्त प्रकट हो उठेंगे। आयुष्मान्, तू सर्वत्र जयवन्त हो...!" श्रीगुरु को वाणी अमोघ मन्त्र के समान समन्तभद्र के रक्त में, एक पराकान्त शक्ति की तरह संचारित हो चली। श्रीगुरु-भगवान का पादवन्दन कर वे अपने क्षुधाजय के मार्ग पर, बर्जनाहीन, कुण्ठाहीन भाव से प्रस्थान कर गये।... अनेकान्त वक्रवर्ती : भगवान् समन्तभद्र : 125

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