Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 119
________________ अनेकान्त है। सो वह अनन्त है। तुम भी अनन्त हो। विश्व भी अनन्त है। अनन्त में अन्त कहाँ, विनाश कहाँ, मृत्यु कहाँ ? मृत्यु और विनाश केवल बौध की अवस्था मात्र हैं।...पदार्थ का नाश नहीं, सो उसके द्रष्टा तुम्हारे आत्मतत्त्व का भी नाश नहीं... __ "...उसे जानो, जो यह सब देखता है, जानता है। वहीं तुम हो । अपने चरम-परम स्वरूप को पहचानो ।...सब रहस्य हस्तामलकवत् खुत्ल जाएगा...!" सुनते-सुनते कुमार शान्तिवर्मन उबुद्ध हो उदे। भीतर शान्ति का एक अजम्न स्त्रोज़ खुल पड़ा। और वे जैसे एक गहरे सुख के समुद्र में निमज्जित हो गये।... ...बहुत देर बाद, जाने कब बहिर्मुख होने पर उन्होंने पाया कि के स्वयं भी ठीक उन योगिराज की तरह ही नग्न, निर्ग्रन्थ स्वरूप में, उनके चरणों में नतमाथ हैं। श्रीगुरु का नाम चे जिज्ञासा करके भी न जान पाये । उसी समुद्र-तटवर्ती पुंगीवन में, कई मास कायोत्सर्ग की दुर्द्धर्ष तपस्या में लीन होकर, वे वस्तु-दर्शन को एक विचित्र पारगामी, दिव्य दृष्टि से सम्पन्न हो उठे। तब श्रीगुरु का आदेश पाकर वे दक्षिणावर्त के जनपदों में बिहार करते हुए, लोक में परम सुखदायक निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवचन करने लगे। ___...एक दिन सहसा ही उन्हें अनुभव हुआ कि उनके नाभि-केन्द्र में दुर्दान्त जठराग्नि धा धाय सुलग उठी है। एक अन्तहीन क्षुधा से सारा प्राण व्याकुल हो उठा है। मात्र ‘पाणि-पात्र' आहार के कुछ निवालों से यह क्षुधा कैसे शान्त होती। आहार उदर में पहुंचते ही भस्म हो जाता है। प्राण में हाहाकारी भूख की शत-सहस्र ज्यालाएँ नागिनों-सी फुफकार उदतो हैं। कोमल कुमार-योगी को लगा कि उनका समस्त चैतन्य एक दारुण जड़त्व से आक्रान्त होता जा रहा है। ......श्रमण-चर्या में व्याघात उत्पन्न हो गया। वे उसकी ग्लानि से विक्षुब्ध होकर आत्मघात करने को उद्यत हुए।...सहसा ही उन्हें अपने श्रीगुरु का अनेकान्त चक्रवनी : भगवानू समन्तभद्र : 123

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