Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 51
________________ हूँ, मेरे प्राणेश्वर अब मुझमें नहीं हैं, इस महल में नहीं हैं, इस लोक में नहीं हैं। कितने दूर हो पई हो तुम : ये चरण मेरी हथेलियों में होकर भी, पेरी पकड़ में नहीं आ पा रहे ! यह तुम्हें क्या हो गया है, मेरे बल्लभ ! लोक की अनन्त रचनाओं का विश्व-कमा, लोक में से निर्वासित हो गया है! जो चाहो. कता रन परन्ते हो ! ता अस्तिल, अनन्त के रचनाकार हो : मनचाहा रचो और भोगो। मुझे रचो नाथ, मुझे हर दिन नयी रचो, और मुझमें हर दिन नव-नूतन रमण करो।'' "नहीं, यश, वह भ्रान्ति अब दूट गयी। क्या नहीं रचा गया लोक में, मेरे हाथों में मेरी निष्काम इच्छा की एक तरंग पर, रातोरात अयोध्याजैसी रनिम नगरी उत्तर आयो। सहस्रों वर्षों में अपार वैभव और ऐश्वर्य, मेरे बिन चाहे भी, मेरे आसपास हिलोरें लेता रहा। मेरा हर सपना यहाँ पदार्थ बना, साकार हुआ। सर्वार्थसिद्धि के पूर्णकाम भोग, अयोध्या के राजमहलों पर निछावर हुए। ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ मेरे चरणों में लोटौं। तुम और सुनन्दा मेरी बाहुएँ बनकर रहीं-तुम-सी सुन्दरियों-इन्द्राणियों का लावण्य, जिनकी पगतलियों में महावर बनकर रच गया ।...सच है, यश, यह सब सच है,...किन्तु फिर भी लग रहा है, कि मेरा सपना वहाँ सम्पूर्ण साकार नहीं हो सका। हो सकता, तो यह अतृप्ति की फाँस, क्यों दिन-रात मेरे हृदय में कसक रही है..." 'बोलो, जी खोलो, सुन रही हूँ।" "तब साफ है कि वह सब स्वयं अपनी रचना है, मेरी नहीं। मेरी रचना होती, तो यह मेरी पूर्ण तृप्ति वनती। इसमें मैं पूर्णकाम होता। स्पष्ट है कि मैं हूँ केवल इसका निमित्त, कर्ता नहीं ! यहाँ हर वस्तु स्वयं अपनी कर्ता है। कोई किसी का कर्ता, धरता, हर्ता नहीं। यहाँ हर वस्तु स्वतन्त्र है, स्वयं आप हैं, स्वयं अपनी कर्ता, धरता और हर्ता है।" । “सर्वशक्तिमान् ऋषभदेव आज कैसी बातें कर रहे हैं। कर्मभूमि के आद्य प्रवर्तक, अवसर्पिणीकाल के आदिमनु, कुलकर, लोकनायक तीर्थकर ...और अकर्ता ? आश्चर्य !" एक और नीलांजना : 55

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