Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 63
________________ जैसे एक नवे ही सूर्य का भामण्डल अपने पंखों पर धारण किये उत्तर आया है। दुन्दुभियों के वज्रघोष के साथ शंख और तुहियों का नाद गहराता चला गया। दिव्य फूलों की राशियाँ बरसाते हुए हजारों देव-देवांगना जयजयकार कर उठे : 'राजयोगीश्वर भगवान् वृषभदेव जयवन्त हों !...धर्म-चक्रवर्ती ऋषभेश्वर जयवन्त हों !...सृष्टि के आदिनाथ जयवन्त हों : कर्म-भूमि के आद्य तीर्थंकर जयवन्त हो।" ____ ...और सहसा हो यशस्वती और सुनन्दा के कन्धों पर से हाथ रखींचकर, सम्मुख दृष्टि, निश्चल पग, वृषभेश्वर सिंहद्वार को पार कर गये। ...छलाँग भरकर 'सुदर्शन' पालकी पर आरूढ़ हो गये। दृष्टि अगम्यों में उड्डीयमान धीं।...उस परम पुरुष ने लौटकर नहीं देखा। ...देखते-देखते, सौ-सौ इन्द्रों के कन्धों पर झूलती पालकी, यशस्वती और सुनन्दा के आसुओं से ओझल हो गयीं। अन्तरिक्ष में जैसे कहीं ध्वनित था : "एकमेवाद्वितीयम्...ओ मेरी एकमेव सुन्दरी, तुम कहाँ हो, ओ मेरी एकमेव प्रिया, तुम कहाँ हो...?" 16 फरवरी, 1979) एक और नीलांजना : 67

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