Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ हो। पर क्या होगा तुम्हारे उस अनन्त ज्ञान का. क्या प्रयोजन है उसका, यति यह लोक उत्तका ज्ञेय न हो, विषय न ही. निष्काम ही सही-पर भोग्य न हो : क्या सार्थकता है तुम्हारे उस ज्ञाता की, ज्ञान की, याद तुम्हारे जानने और भोगने को यह त्रिलोक और त्रिकाल न हो ?...यदि तुम्हारे जानने को राजुल न हो...? सुनो, अपने को जानकर भी मुझे न जानोगे, तो तुम्हारा जानना अधूरा ही रह जाएगा : सार्थक नहीं होगा। तुम कृतकाम न हो सकोगे।.... ____ ...ओ मेरे परम पुरुष, मुझे जानो, मुझे लो, मैं तुम्हारी परम वल्लभा प्रकृति हूँ। जानो, मैं ही तुम्हारी मुमुक्षा हूँ, मैं ही तुम्हारी अभीप्सा हूँ। मेरे न आने तक तुम अटके रहे। मेरे आते ही गगनोद्यत हुए। अपने पिछले पेर को मेरी छाती पर धरकर ही तुमने गिरनार पर अगला चरण भरा था। ...मैं ही हूँ तुम्हारे ज्ञान की कसौटी, तुम्हारी सिद्धि का प्रभाव । तुम्हारी मुक्ति का द्वार । मुझे जाने बिना पाये, पाये बिना, भेदे विना, तुम पूर्ण ज्ञानी नहीं हो सकते, पूर्ण पुरुष नहीं हो सकते। ...एकाएक घनवोर बादल गरजने लगे। पृथ्वी और अन्तरिक्ष को विदीर्ण करती हुई प्रत्यंचाकार विजलियाँ कड़कने लगीं। दिगन्तों से उटती हुई प्रचण्ड अधियों और वृष्टि-धाराओं में अविचल गिरनार चलायमान होने लगा। और एक अति कोमल महीन कण्ट की पुकार उसमें अन्तहीन होती चली गयी।... "मेरे नाध...मेरे पुरुष...तुम कहाँ हो !" ....थोड़ी देर में तूफान किसी कदर शान्त हो चला। वृष्टि-धाराओं का वेग कुछ कम हुआ। राजुल ने चारों ओर निहारा । पीछे मुड़कर देखा। एक गुफा दिखाई पड़ी। उसके अँधियारे द्वार में अमोघ आवाहन था।..भीगे तन-बसन से लथपथ, वह गुफा में प्रवेश कर गयो । वह ऐसा निर्याध और लिंगातीत : 75

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156