Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 106
________________ "हट नहीं, तात, उपादान पूरा हुआ। यह प्रकट हुआ । उसका स्वागत है। और आप क्यों हारेंगे, जब मैंने कोई जीत कभी नहीं चाही। मैंने तो केवल अपनी स्वतन्त्र सत्ता का निवेदन किया था, जो वस्तु मात्र की है। उसमें मेरी जीत किसी और की हार पर निर्भर नहीं करती।" "शिप्रा के केतकी-कुंजों की मकरन्दिनी मैना कोढ़ी का आलिंगन करेगी।" "कोढ़ी अन्तिम नहीं. तात । अन्तिम नो भीतर का एछ दी है. और वह कोढ़ से अछूता है। और फिर किस कोड़ी में कामदेव छुपा है, और किस कामदेव में कोढ़ी छुपा है, इसका निर्णय कौन कर सकता है ?" ____ "यहाँ तो कोढ़ी प्रत्यक्ष सामने है, पैना ! परोक्ष की जल्पना से क्या लाभ है ?" "और वह कामदेव नहीं है, इसका क्या निश्चय है ?" "बह निश्चय तो अब तुम्ही कर लेना। वह मेरा सरोकार नहीं । तुम्हारी चाह पूरी हुई : अब तुम अपनी जानो।" __“आप निश्चिन्त रहें, तात । आपकी बेटी, आपकी आन को लजाएगो नहीं। इतना हो कहे देती हूँ कि मैना का नियोगी यदि कोढ़ी भी होगा, तो उसे कामकुमार हो जाना पड़ेगा...!" तो अपनी हठ पूरी करो, मैनासुन्दरी। कल हम सब निरंजना के बृहदारण्य को प्रस्थान कर जाएँगे...!" निरंजना पार का कोढ़ी-कान्तार रातोरात उत्सव के स्वर्ग में बदल गया। रक्त-पीप झरते सात सौ कोढ़ी, केशरिया वेश में सजे सामन्त हो गये। रुदन-भरे कण्ठों से सनिर्यों तथा राज-कन्याएँ विवाह के मंगल-गीत गाने लगी, और अनेक-विध मंगलाचार को अपने आँसुओं से सोचने लगीं। राज-वाद्यों की रागिनियों और शंख-घण्टा ध्वनियों से, अरण्यों में चिरा सहस्रावधि वर्षों का जड़ अन्धकार चैतन्य होकर अंगड़ाई ले उठा। 110 : एक और नीलांजना

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