Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 111
________________ को सौंपकर, महायात्रिक अपनी बिजय-यात्रा पर अकंला ही निकल पड़ा। किसी के शत-कोटि आलिंगन उसकी बाहुओं में शक्ति के समुद्र बनकर उमड़ पड़े। ___...अपनी घारह वर्ष व्यापी दुर्दान्त साहस-यात्राओं में श्रीपाल ने विजयाध और वैताङ्य पर्वतों के अनेक विद्याघरों से नाना सिद्धि-प्रदायिनी विद्याएँ प्राप्त कीं; हंसद्वीप में चिरकाल से बन्द सहस्त्रकूट चैत्वालय के वन-कपाटों सो सोनकर की रापुर मंहमा का वा : नि। कोशाम्बी के धवल श्रेष्ठी के व्यापारी-जलपोतों पर महीनों कई प्रदेशों की जलयात्रा करते हुए मार्ग में अनेक सामुद्रिक मगर-मच्छों और डाकुओं को पराजित किया। रयनमंजूषा पर आसक्त चित्त धवल श्रेष्ठी के षड्यन्त्र से समुद्र में फेंक दिये गये। अपराजेय भुजबल और संकल्प-शक्ति से समुद्र-सन्तरण कर, कुंकुम द्वीप में अपने नियोगी समुद्रजयी पुरुष के लिए प्रतीक्षा करती राजकन्या गुणमाला से विवाह किया। फिर धवल श्रेष्ठी के कुचक्रों के चलते वरांग द्वीप में शूली पर चढ़कर भी वधिक के प्रहार से बच निकले, और चित्ररेखा का पाणिग्रहण किया। जिस भी दिशा, भूमि और समुद्र तट का इस पुरुष-पुंगव ने स्पर्श किया, उसके हर पराक्रम के छोर पर देश-देश की अनुपम सुन्दरी राज-कन्याएँ उसके लिए वरमाला लिये खड़ी थीं। अपने दिग्विजयो पर्यटन में ठौर-ठौर अनाचारियों और दुष्टों का दमन करते हुए अनेक प्रदेशों में अपना कल्याण-राज्य स्थापित करते हुए, आठ हजार रानियों और अतुल्य रत्न सम्पदा लेकर एक दिन कामकुमार कोटिभट श्रीपाल बड़े उत्सव-समारोह के साथ चम्पा के नदी-घाट पर आ उतरे । अकलंक श्वेत वसनों से शोभित, पुक्तकेशी, तपोज्ज्वला पैनासुन्दरी ने, सौ-सौ आरतियों के आलोक से अपने दिग्जयी स्वामी का स्वागत किया। श्रीपाल ने अपने सारे विजित वैभव, सहस्रों रानियों और नाना देशों को जयलेखाएँ मैना के चरणों में अर्पित कर दी। शुभ समाचार पाकर, अवन्तीश्वर महाराज पहपाल भी अपना परिकर रूपान्तर की द्वाभा : 15

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