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और भरपूर नयनों के नीलोत्पल पसारकर, मैना ने दूर से ही अपने स्वामी को, अविकल अपने आँचल में समेट लिया।...और अपने वल्लभ का हाथ पकड़कर, वह गुफा के अचीन्हे अन्धकार में प्रवेश कर गची।...
श्रीपाल के व्रणों से रिसते चरणों को, सघन सुगन्धों बसे कुन्तलों की शीतल छाया में, किसी की गोली बरौनियों हौले-हौले सहलाने लगीं। __ "तुम कौन हो, मैना ?...मेरे भीतर ऐसे सपूची चली आयी हो, जैसे अपने सिवा और कोई नहीं हैं ही नहीं। मेरी हो आत्मा मुझे दुलरा रही है। नहीं तो अन्य कोई यहाँ क्यों आएगा। मानवों से परे है पालना का
"सच कहते हो, अनन्या एक मैं ही तो हूँ यहाँ। और कोई नहीं, स्वामी । अपनं ही स्वरूप से मिलने आयी हूँ। और उसे पाकर भर-भर उठी हूँ। जन्म-जन्मों के मेरे सारे रिक्त भान और घाव, तुम्हारे इन यावों से भर गये हैं। मैं परिपूरित हुई। मैं पूर्णकाम हुई।..."
"पैना, तुम्हारी हथेलियों के चन्दन-कपूर सहे नहीं जाते। फिर भी अतल में कहीं, कैसा जगाध है यह सुख, कैसा निराकुल । अपने ही भीतर से जैसे सब कुछ पा गया हूँ, बाहर से पाने को अब कुछ नहीं रह गया । ...तुम तो रंच भी अपने से बाहर, अन्य कोई, द्वितीय पुरुष नहीं लगती, मैना ।...सचमुच अनन्या हो तुम !..." ।
....कुछ देर एक सगर्भ मौन, कसमसाहट के साथ गहराता रहा। फिर एक निवेदित कण्ट के उच्छ्वास से चुप्पी भंग हुई :
"...फिर यह झिझक कैंसी...?...नाथ !" "मेरे पास बाँहें नहीं, वक्ष नहीं, मैना ।...मेरे पास देह नहीं देवी !''
''मेरी बाँहें, मेरा वक्ष, मेरी देह तो है। दूसरी अनावश्यक हैं स्वामी ! ...इसे अब भी पराची समझ रहे हो !..."
__ "मेरे अहं को तुम्हीं तोड़ो, और चाहे तो सोहं बना लो। मेरे वश का कुछ भी नहीं...।"
112 : एक और नीलांजना