Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 72
________________ निर्जन एकान्त था कि वहाँ अपने सिवा किसी अन्य के होने की कोई कल्पना ही राजुल के मन में न आ सकी।...सो अपने भीगे हुए अखण्ड एकमात्र वस्त्र को उतारकर निचोड़कर, राजुल ने उसे एक ओर फैला दिया। अपने को निरावरण पाकर, वह अनजाने ही रोमांचित हो आयी .... अधययन-दोष करती हुई फी कड़की, औरह गुफा के अन्धकार को भेद गयी। उसके उजाले में राजुल ने देखा : गुफा के शेषान्त में, एक शिला पर कोई अतिशय सुन्दर, दिगम्बर कुमार-योगी पल्कासन से आसीन हैं। राजुल की तहें काँप उठीं। उसके तन-मन के सारे कोशावरण झनझना उठे।... रह-रहकर बिजली कौंध उठ रही है। किंचित् दूर पड़े वसन को उठाने की सुधबुध भी उसे नहीं रही। जहाँ वह खड़ी थी, वहीं अपने गुह्यांगों को गोपित कर वह धप् से मर्कटासन में बैठ गयी । ... फिर बहुत प्रचण्ड वेग से आँधियाँ टूट पड़ीं। धारासार झड़ियाँ बरसने लगीं। एक पर एक टूटती बिजलियों के मण्डलों में धरती और आकाश चक्कर खाने लगे। राजुल ने अपनी छाती में दुबके मस्तक पर साक्षात् प्रलयंकर की जैसे ताण्डव नृत्य करते देखा । साहस बटोरकर वह बोली : "आर्य, बालिका को क्षमा करें। उसका त्राण करें ...." "तथास्तु, सुन्दरी !... मुझसे लज्जा कैसी ? मैं ही तो हूँ... तुम्हारे लावण्य का चिर प्रार्थी । अरिष्टनेमि का अनुज, महाराज समुद्रविजय का कनिष्ठ आत्मज... मैं रथनेमि ...! "तुम्हारे सौन्दर्य की सुगन्ध और आभा की लहरों से सारे आर्यावर्त का आकाश आविल था । चिर दिन से तुम मेरा स्वप्न होकर रहीं। " अचानक सुना, मेरी भाभी होकर आ रही हो, द्वारिका के राजमहलों में।... मन मारकर रह गया। सोचा, आँखों की राह ही तुम्हें अपने अन्तर के अन्तःपुर में बसा लूँगा ।... किन्तु वह सपना भी टूट गया। तब लोकालय 76 एक और नीलांजना

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