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रूपान्तर की द्वाभा आख्यान मैनासुन्दरी और श्रीपाल का
उज्जयिनी के महाराज पहुपाल, अपने क्षिप्रा-तटवर्ती राजोपवन में, बिन्ध्याचल की एक भूरी चट्टान से निर्मित सिंहासन पर सुखासीन हैं। अपनी छोटी बेटी, राजकुमारी मैनासुन्दरी के साथ आज इधर सान्ध्य विहार को निकल आये हैं। अपनी इस सदा की सुगम्भीरा और मौनवती बेटी के मन की आज चे थाह लेना चाहते हैं।
क्षिप्रा की लहरों से चुम्बित वेला-फूलों की गन्ध से सुरक्षित, मालव की सन्ध्या के कुन्तल हवा में हौले-हौले लहरा रहे हैं। राजपुत्री ने पास ही पड़ा वेतस-लता का भद्रासन नहीं स्वीकारा । पिता के चरणों के पास ही, क्षिप्रा की एक स्तम्भित लहर-सी, वह जानु सिकोड़कर नतमाथ बैठी है।
मैंना, सुनता हूँ आर्यिका-श्रेष्ठ जिनमती से तुम उत्तम कैवल्य-विद्या सीख आयी हो : सुन्दरी तो अनुपम हो ही, विदुषी 'मी हो गयी ! सुवर्ण को मंजूषा में कस्तूरी महक उठी है।" ___"विदुषी नहीं हो सकी, ताप्त । सारी विद्याएँ भूल आयी। पर सती-माँ के चरणों में अपने ही को पहचानने की पराविद्या का किंचित् प्रसाद जरूर पा गयी हूँ।"
"विन्ध्या की बेटी के अनोखे लावण्य और यौवन से, दिशाएँ सोनल हो उठी हैं, मैना ।...समय आ गया है, और आर्यावर्त के शिरोमणि सिंहासनधर तुम्हारी जयमाल की प्रतीक्षा में हैं। जिसे चाहो, उसे चुनो : उसका माथा तुम्हारे पाणि-पल्लव तले झुक जाएगा !"
रूपान्तर की द्वाभा : 99