Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 103
________________ जाया के स्वाधीन वचन माल रहे थे। उनका घायन अहंकार अनजाने ही उनके अवचेतन में, प्रतिशोध की विषम वंदना से ग्रस्त था। अनेक देश, ग्राम, पुर, नगर, पत्तनों और वन-कान्तारों में वे भटकते फिरे। वे यह जाँचने को ब्यन थे कि आखिर कौन है वह परम पुरुष, मैना का यह नियोगी, जो स्वयं ही सामने आकर खड़ा हो जाएगा। ये संकल्पित थे, कि मैं निमित्त नहीं मिलाऊँगा, कोई प्रयत्न या याचना अपनी ओर से नहीं करूँगा।...देखू तो उस मानिनी को आन, कि कैसे उसका वह बिलक्षण स्वामी, स्वयं ही सम्मुख आकर उपस्थित होता है। ____ कई महीनों, कई देशों की खाक छानने के बाद, एक दिन वे एक भीषण अटवी में आ निकले । सहसा ही वे और उनके मन्त्रीगण किसी दुःसह दुर्गन्ध के आक्रमण से परेशान हो गये । कौतूहलवश, आस-पास और दूर-दूर तक वे टोहते फिरे, मगर पता न चल सका कि वह ऐसी सडाँधभरी दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है। योजनों की दूरियों में चारों ओर यह निविड़ता से व्याप्त है। राजा को इस भीषण दुर्गन्धि में भी एक अद्भुत आकर्षण की अनुभूति हुई। मानो कि नागों से लिपटे किसी भयावह चन्दन-बन की गन्ध हो। महाराज अपने बावजूद मन्त्र-मुग्ध-से खिंचते ही चले गये, बढ़ते ही चले गये। और एक सवेरे ये कोढ़ियों के इस विजन कान्तार में आ पहुंचे। दूर-दूर तक सैकड़ों कोढ़ी, कहीं वृक्ष तले, तो कहीं किसी शिलातल पर, तो कहीं किसी झाड़ी या कन्दरा में, अपनी-अपनी यातना के एकाकी द्वीप बने बैठे थे। अपने-आपमें सिमटे हुए। अपनी वेदना के आईने में अपना असली चेहरा खोजते हुए। उनके गलित-पलित, भोंतरे अंग-प्रत्यंगों और नाक-नक्शों की विद्रूपता को देखने से ही आँखें इनकार कर देती हैं। सहसा ही राजा पहुपाल एक गुफा के द्वार पर आ पहुँचे। अगले ही क्षण, एक देवोपम स्वरूपवान् पुरुष सामने आ खड़ा हुआ, जिसके रक्त-पीप से झरते व्रणों, और मलित उँगलियों तथा विकृत आकृति के वावजूद, उसकी देह-प्रभा छुपी नहीं रह पा रही थी। उस कान्तिमान् कोढ़ी ने रूपान्तर की दाभा : 107

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