Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 45
________________ गया। वह भी मेरा परित्राण न कर सका। 'माँ की अगाध ममताली गोद से भी उछलकर मैं धरती पर आ गिरता। एकाकी और अनाथ चीखता रहता। सान्त्वना के शब्द फूट नहीं पाते थे। “एक ही माँ के जने भाइयों और बहनों के प्यार और परिवाने भी हार मान ली। “और मेरी परम सुन्दरी पत्नी थी। वह मुझे ही परमेश्वर समझती थी। उसकी पति-भक्ति लोक में अनुपम थी। सत और दिन का भान भूलकर वह मुझी में रमी रहती। ऐसा लगता था कि उसकी आत्मा मेरी आत्मा से भिन्न नहीं है। अटूट वह, मेरे अंग-अंग से जुड़ी रहती। वह सच्चे अध में मेरी अर्धांगिनी थी। भोजन, वसन, शयन, सुगन्ध, शृंगार सभी का परित्याग कर, केवल मुझी में उसका प्राण अटका रहता। क्षण भर के लिए भी मेरे माथे को वह अपनी गोद से न उतारती । अपनी किसलय-कोमल बाहुओं से वह हर समय मुझे घेरे रहती। तुहिन से भी तरल और मृदुल अपनी उंगलियों के परस से यह मेरा पोर-पोर सहलाती रहती। अपनी भुवन-मोहिनी आँखों से हर समय वह मुझे ही एकटक निहारती रहती। अपने मलयानिल-जैसे कुन्तलों से वह मुझे छाये रहती। अन्तरतम प्रीति के आँसुओं से वह मेरे हृदय को निरन्तर सींचती रहती। किन्तु हे पार्थिव, ऐसी परम वल्लभा प्रिया भी मेरी उस पीड़ा की सहभागिनी न हो सकी उसके भीतर भी मेरी आत्मा को शरण न मिली । ...तब अन्तिम रूप से मुझे यह प्रतीति हो गयी, कि संसार की बड़ी-से-बड़ी प्रीति भी मनुष्य को सनाथ नहीं कर सकती। यहाँ की हर बस्तु, यहाँ का हर व्यक्ति अनाथ है, अनालम्व है। कोई किसी को सहारा नहीं दे सकता। ___"एक रात के मध्य प्रहर में, मेरी पीड़ा पराकाष्ठा पर पहुँची। मृत्यु पेरे सामने आकर खड़ी हो गयी ।...उस क्षण प्रिया का आखिरी आँसू मेरे सिसकते होठों पर गिरा, और व्यर्थ होकर दुलक गया।...मैं अन्तिम रूप से अनाथ हो गया। चरम विरह की अन्धकार रात्रि मेरे भीतर व्याप स्त्रयनाथ : सर्वनाथ : 45

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