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कोई नाघ और साथ न मिला ? समझ में नहीं आता। मगध्रनाथ श्रेणिक के देश में कोई जनाथ नहीं रह सकता। मैं तुम्हें सनाथ करूँगा। चलो, मेरे महलों का ऐश्वर्य तुम्हारी प्रतीक्षा में है। और आर्यावर्त की सौन्दर्य-लक्ष्मी चेलना को गोद तुम्हें शरण देगी।"
'राजेश्वर, तुम, तुम्हारी राजेश्वरी और तुम्हार वैभव, सभी तो अनाथ हैं। और जो स्वयं ही अनाथ है, वह दूसरे को सनाथ कैसे कर सकता
मंगधर से एं* साहातक बात कहने का साहस तो आज तक किसी ने किया नहीं था। सुनकर वे विस्मय से अवाक् रह गये।
"सुनो आरण्यक, इन्द्रों और माहेन्द्रों के स्वर्ग राजगृही की रलिम छतों पर निछावर होते हैं। अप्सराएँ मेरे अन्तःपुरों को तरसती हैं। और तुम मुझे अनाध कहते हो ? आश्चर्य !" ___“हे पार्थिव, काश अनाथ और सनाथ के परम अर्थ को तुम जान सकते ? वह केवल अनुभवगम्ब हैं।"
“योगिन, अपपत्ति न हो, तो तुम्हारा अनुभव सुनना चाहता हूँ।"
“राजन्, लोक-विश्रुत प्राचीन नगरी कोशाम्बी का नाम तुमने सुना होगा। मैं वहीं के राजा धनसंचय का पुत्र था। आरम्भिक तरुणाई में ही एक बार मेरी आँखों में असह्य पीड़ा उत्पन्न हुई। और उसके कारण पेरे सारे शरीर में दाह-वर व्याप गया ! अंग-अंग में अंगार-से धधकने लगे। किसी शत्रु के तीने शस्त्रों के फल-जैसे मेरे रोम-रोम को बींधने लगे। इन्द्र के वज्र की तरह उस दाह-चर की वेदना मेरी कमर, मस्तक और हृदय को उमेठने लगी। मेरी छटपटाहट देखकर मेरे स्वजनों की आँखें मूंद जाती। मेरी आतं चीत्कार सुनकर वे अपने कानों में उँगलियाँ दे लेते।
“समस्त देश के निष्णात वैद्य, तान्त्रिक-मान्त्रिक मेरी चिकित्सा के लिए बुलाये गये। आयुर्वेद, मन्त्र-तन्त्र, जड़ी-बूटी सब पराजित हो गये। चन्द्रकान्त मणि के शीतल जल भी मेरे उस शाह को शान्त न कर सके।
"मेरे पिता का अपार बाल्सल्य और वैभव भी मुँह ताकता खड़ा रह
-18 : एक और नीलांना