Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 42
________________ रमण करके भी तुम्हें जान नहीं सका। कमल की पाँखुरी घर ओस बिन्दु ठहर नहीं पाता है। तट की रेती को उलकर समुद्र फिर-फिर अपने क्षितिजों में बिलम जाता है।" "तो आओ प्रियतम, अन्तरमणि सरांवर में जल क्रीड़ा करें।" चन्द्रमा अस्ताचल की घाटी में उतर गया। अन्तर-मणि सरोवर कं चारों ओर घिरी मन्दार तरुमाला में रात का आखिरी पहर जाते-जाते ठिठक गया है। आज की भोर उगनेवाला सूरज इस घड़ी विदेह -राजवाला चलनी की कंचुकी में बन्दी है । ... चिदम्बरा आज यहाँ दिगम्बर के साथ रमण करने आयी हैं।... अन्तरमणि सरोवर के नीलो जलों में वसन तरल से तरबतर होते हुए.. जाने कब आपोआप ही उतरकर अपने आप में लीन हो गये । निग्रन्थ वैदेही की बाहुओं में शरण खोजते से श्रेणिकराज एक शिशु की तरह दुलक पड़े ।... और चेलनी की अन्तिम कंचुकी के बन्द तोड़कर पूवांचल पर सूरज की रक्ताभ किरण फूट पड़ी |... महाराज ने अपने सिर को अपनी हो बाँहों में इलका पाया । उनका अन्तस्तल आर-पार बंध गया।.... ... तट पर खड़ी महारानी पुकार रही थीं : " दिन उग आया, प्रभु ! चलिए चैत्य-कानन में विहार करने की वेला आ पहुँची।" : महाराज एक विचित्र द्वाभा में खोये से महारानी के साथ चलने लगे। रात भी नहीं है, दिन भी नहीं हैं उनके अन्तर में कोई तीसरी ही वेला हर आने को सुगबुगा रही है। अखण्ड मौन में दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं। बाहर तपोवन तपे हुए हिरण्य की आभा से दीपित हैं; लेकिन मगधेश्वर की आँखें अपने भीतर ही जाने क्या खोजती चली जा रही हैं। विहार करता-करता राजयुगल 'मण्डित कुक्षि' नामक चैत्य से गुजरा। महाराज एकाएक वहिर्मुख हो जाये। देखते क्या हैं कि एक वृक्ष के मूलदेश में एक अति सुन्दर सुकुमार बुबा दिगम्बर स्वरूप में समाधिस्य है । देखकर 46 एक और नीलांजना

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