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"मुझे ले लो, और फिर जो चाहो अपनी हठ मुझमें पूरी करो मेरे देवता ! जो चाहो, मुझे बना लो तुम्हारी हर चाह में टलती चली जाऊँगी। नारी होकर इससे अधिक क्या दे सकती हूँ, नहीं जानती !"
"नहीं जानतीं, तो जानों, मैं बताता हूँ ।...सुना है, सभ्मंद-शिखर पर्वत की किसी अगम्य चूड़ा पर एक ऐसी सुन्दरी रहती हैं, जो नित्य यौवना और अमृता है। जरा और मरण उसे अनजाने हैं। उसकी खोज में जाना चाहता हूँ। साथ चलोगी, प्रभावती ?..."
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'जो चाहीने, करूंगी हो। तुम्हारी हर हद के आयात से मेरी ही हड़ी लचकती चली जाएगी। जितना चाहो खींचो, टूहूँगी नहीं तुम्हारी हर तान की तन्त्रो होकर रहूँगी। अपनी हर उत्तानता लेकर आओ मेरे मीतर चूर-चूर होकर, तुम्हारी मनचाही गहराइयों में तुम्हें झेलती चली जाऊँगी। अनन्तिनी और अमृता हूँ कि नहीं, सो तो नहीं जानती, पर अनन्त और असम्भव होकर आये हैं मेरे स्वामी, तो प्रभा उनके हर बाहुबन्ध में, नयी होकर लहराएगी। अमृत सींचांगे, तो यह माड़ी मर्त्य कैसे रह सकेगी...!"
पार्श्वकुमार उन्मीलित मुद्रा में स्थिर, जैसे किसी पाशन्तिनी तुरीया को सुन रहे थे T
"बड़ी सुनम्या हो, आत्मन् ! रक्त मांस के तन में ऐसी सुनम्यता नहीं देखी, नहीं सुनी।...फिर भी बाहर जब देखता हूँ, तो लगता है कि तुम तो सुगन्ध से भी कोमल हो, प्रभावती। मेरी यात्रा के उन दुर्गम्यों में कैसे चलोगी। पत्थरों, काँटों, चनों, अमेय अरण्यों, हिंस प्राणियों खड़ी चढ़ाइयों, अजेय ऊँचाइयों, अतुल खन्दकों के किनारों को पार कर सकोगी ?"
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" अपनी चरण रज बना लो, फिर चाहे जहाँ ले चलो। तुम्हारे समर्थ चरणों की धूलि हो जाने पर, कुछ भी अगम्य नहीं रहेगा मेरे लिए तुम्हारे पैरों से लिपटकर मौत में से भी पार हो लूँगी। चलोगे तुम, मुझे तो चलना नहीं होगा। फिर डर किस बात का ?"
"और अगर वह सुन्दरी वहाँ मिल गयी, और मैंने उसका वरण कर लिया, तो तुम क्या करोगी "
चट्टान्त को प्रभा : 99