Book Title: Dhaturatnakar Part 1
Author(s): Lavanyasuri
Publisher: Rashtriya Sanskrit Sansthan New Delhi

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Page 579
________________ 562 धातुरत्नाकर प्रथम भाग (बन्ध्) संयमने इत्यस्य तु चौरादिकत्वादनेकस्वरत्वेन | लकारसहितग्रहणात् १४९२ शिष्लूप् (शिष्) विशेषणे सेट्त्वमेव। बुध्य-इति श्यविकरणसहितनिर्देशात् १२६२ / इत्यस्यैव ग्रहणं नतु ५०८ शिष (शिष्) हिंसायामित्यस्य। बुधिं (बुध्) ज्ञाने इत्यस्यैव ग्रहणं न तु ९१२ बुधृग् १९७७ शिषण् (शिष्) असर्वोपयोगे इत्यस्य तु (बुध्) बोधने ९६८ बुध् (बुध्) अवगमने इत्यस्य च। युजादिपाठात्सेट्त्वमेव। १२०८ शुषंच् (शुष्) शोषणे। ९३० १४७३ रुधुंपी (रुध्) आवरणे। १२६१ अनोरुधिंच् (अनु- | त्विषीं (त्विष्) दीप्तौ। १४९३ पिष्लूप् (पिष्) संचूर्णने। रुध्) कामे। ११८४ क्रुधंच् (क्रुध्) कोपे। ११८२ क्षुधंच् विष्ल-इति लकारसहितनिर्देशात् ११४३ विष्लंङ्की (विष्) (क्षुध्) बुभुक्षायाम्। सिध्यति-इति | व्याप्तौ इत्यस्यैव ग्रहणं न तु ५२३ विषू (विष्) सेचने श्यविकरणसहितनिर्देशात्। ११८५ षिधूच् (सिध्) संराद्धौ | इत्यस्य १५६० विषश् (विष्) विप्रयोगे इत्यस्य च। ५०६ इत्यस्यैव ग्रहणं न तु ३२० विध् (सिध्) गत्यामित्यस्य ३२१ / कुंष् (कुष्) विलेखने। १३१९ कृषीत् (कृष्) विलेखने। षिधौ (सिध्) शास्त्रमाङ्गल्ययोरित्यस्य च। । १२१३ तुषंच् (तुष्) तुष्टौ १२०९ दुषंच् (दुष्) वैकृत्ये दुष्११०० हनंक (हन) हिंसागत्योः । मन्यति-इति | साहचर्यात् ११७५ पुषंच (पुष) पुष्टौ इत्यस्यैव ग्रहणं न तु। श्यविकरणसहितनिर्देशात् १२६३ मनिंच् (मन्) ज्ञाने | ५३६ पुष् (पुष्) पुष्टौ इत्यस्य। १५६४ पुषशू (पुष्) पुष्टौ इत्यस्यैव ग्रहणं नत् १५०७ मनयि (मन) बोधने इत्यस्य। | इत्यस्य च। १७५५ पुषण् (पुष्) धारणे इत्यस्य तु १८१० मनिण् (मन्) स्तम्भे इत्यस्य तु | चौरादिकत्वादनेकस्वरत्वेन सेट्त्वमेव। श्लिष्यति-इति चौरादिकत्वादनेकस्वस्त्वेन सेट्त्वमेव। १३०७ आप्लँट् | श्यविकरणसहितनिर्देशात्। १२१० श्लिषंच् (श्लिष्) (आप) व्याप्तौ। १९७३ आप्लृण (आप) लम्भने इत्यस्य तु आलिङ्गने इत्यस्यैव ग्रहणं न तु ५३१ श्लिषू (श्लिष्) दाहे युजादिपाठात्सेट्त्वमेव। ३३३ तपं (तप्) संतापे। १२६७ | इत्यस्य। १७०४ श्लिषण् (श्लिष्) श्लेषणे। इत्यस्य तु तपिंच (तप) ऐश्वर्ये वा। १९७६ तपिण (तप) दाहे इत्यस्य | चौरादिकत्वादनेकस्वरत्वेन सेट्त्वमेव। १६२६ द्विषींक् तु युजादिपाठात्सेट्त्वमेव। ९१६ शपी (शप्) आक्रोशे।। (द्विष्) अप्रीतौ। ५४४ घस्लुं (घस) अदने। वसति-इति १२८३ शपींच् (शप्) आक्रोशे। ११५८ क्षिपंच (क्षिप) | शव्विकरणसहितनिर्देशात्। ९९९ वसं (वस्) निवासे प्रेरणे। १३१७ क्षिपीत् (क्षिप्) प्रेरणे। इत्यस्यैव ग्रहणं न तु १११७ वसिक् (वस्) आच्छादने __ १३७५ छुपंत् (छुप्) स्पर्श लुम्पति इति | इत्यस्य। १२२६ वसूच् (वस्) स्तम्भे इत्यस्य च। १७६१ मागमासहितनिर्देशात् १३२३ लुप्लंती (लुप) छेदने इत्यस्यैव | वसण् (वस्) स्नेहच्छेदावहरणेषु इत्यस्य तु माहस्य ग्रहणं नतु ११९५ लुपच् (लुप्) विमोहने चौरादिकत्वेनानेकस्वरत्वात्सेट्त्वमेव। ९८८ (रुह) रु इत्यस्य। १३४१ सृप्लं (सृप्) गतौ। १३२४ लिपीत् (लिप्) जन्मनि। अत्र रोहति-इति शद्रिकरणसहितनिर्देश: उपदेहे ९९५ डुबपी (वप्) बीजसंताने। १०८८ जिष्वपंक् श्लोकरचनार्थः। लुहि रुही (लुह-रुह) इमौ धातुपाठेषु न (स्वप्) शपे। ३७८ यभं (यभ्) मैथुने। ७८५ रभिं (रभ्) दृश्येते छान्दसौ मन्तान्तरीयौ वा संभाव्यते। देग्धीति। ११२८ राभस्य। ७८६ डुलभिंष् (लभ्) प्राप्तौ। ३८६ यमु (यम्) | दिहाक् (दिह) लप। दोग्धाति। ११२७ दुहाक् (दुह्) क्षरण। उपरमे। ९८९ रमिं (रम्) क्रीडायाम्। ३८८ णमं (नतम्) ११२९ लिहीक (लिह) आस्वादने। ५५१ मिहं (मिह) प्रह्वत्वे। ३९६ गम्लुं (गम्) गतौ। ९८६ क्रशं (क्रुश्) सेचने। ९९६ वहीं (वह्) प्रापणे। १२८५ णहींच् (नह) आह्वानरोदनयोः । १२७७ लिशिंच् (लिश्) अल्पत्वे। १४१७ / बन्धने। ५५२ दहं (दह्) भस्मीकरणे। इति स्फुटं यथा लिशंत् (लिश्) गतौ। १४१३ रुशंत् (रुश्) हिंसायाम्। स्यात्तथा इमे व्यञ्जनान्ता धातवोऽनिट; तद्व्यतिरिक्ता १४१४ दिशत् (दिश्) हिंसायाम्। १३१८ दिशीत (दिश्) व्यञ्जनान्ताः सेटः। इति स्वरान्तव्यञ्जनान्तधातूनां अतिसर्जने। ४९६ दंशं (दंश्) दशने। १४१२ स्पृशत् सेट्त्वानिटत्वे प्रपञ्चिते।। (स्पृश्) स्पर्शे। १४१६ मृशंत् (मृश्) आमर्शने। १४१५ ॥समाप्ता अनिट्कारिकाः।। विशत् (विश्) प्रवेशने। ४९५ दृशं (दृश) प्रेक्षणे। | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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