Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Yashovijay
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावं विणावि एवं होइ पवित्ती ण बाहए एसा / . सव्वत्थ अणभिसंगा विरईभावं सुसाहुस्स // 17 // उस्मुत्ता पुण बाहइ, समइविअप्पसुद्धा वि णियमेण / गीयणिसिद्धपवजणरूवा णवरं णिरणुबंधा // 18 // इहरा उ अभिणिवेसा इयरा नय मूलछेन्जविरहेण / होए सा एत्तो चिय, पुवायरिआ इमं बाहु // 19 // गीयत्यो अ विहारो बीओ गीयत्थमीसिओ चेव / इत्तो तइअविहारो णाणुनाओ जिणवरेहिं // 20 // गीयस्स ण उस्सुत्ता तज्जुत्तस्सेयरस्स य तहेव / णियमेणं चरणवंज (वज्ज) ण जाउ आणं वि लंघेइ // 21 // ण य तज्जुत्तो अण्णं णिवारए जोग्गयं मुणेऊणं / एवं दोण्हवि चरणं परिसुद्धं अण्णहा व // 22 // सा एव विरतिभावो संपुनो एत्थ होइ णायदो। . णियमेणं अट्ठारससीलंगसहस्सरूवो उ // 23 // त्ति ततो नद्युत्तारादावुत्सूत्रप्रवृत्त्यभावादाज्ञाशुद्धस्य साधोर्न सातिचारत्वमपीति कुतस्तरां देशविरतत्वम् ? तदेवं नद्युत्तारेऽन्यत्र वाऽपवादपदे भगवदाज्ञया द्रव्याश्रवप्रवृत्तावपि न दोषत्वमिति स्थितम् / एवं चात्र विहितानुष्ठानेऽनुबन्धतोऽहिंसा भावं विनाऽप्येवं भवति प्रवृत्तिर्न बाधते एषा। सर्वत्रानभिष्वङ्गा विरतिभावं सुसाधोः // उत्सूत्रा पुनर्बाधते स्वमतिविकल्पशुद्धाऽपि नियमेन | गीतनिषिद्धप्रपदनरूपा नवरं निरनुबन्धा // . इतरधा त्वभिनिवेशादितरात् न च मूलच्छेद्यविरहेण ! भवेत्सा इत एव पूर्वाचार्या इदमाहुः // गैतार्थश्च विहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्रितश्चैव / इतस्ततीयो विहारो नातुज्ञातो जिनवरैः // गीतस्य नोत्सुत्रा तयुक्तस्येतरस्य च तथैव / नियमेन चरणवर्ज न जात्वाज्ञामपि लङ्घयति // न च तद्युत्कोऽन्यं निवारयति योग्यतां ज्ञात्वा / एवं द्वयोरपि चरणं परिशुद्धमन्यथा नैव // तत एव विरतिभावः संपूर्णोऽत्र भवति ज्ञातव्यः / मियमेनाशशीकांगसहमरूपस्तु // " इति For Private and Personal Use Only

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