________________
हैं। विश्व की मानव संस्कृति को यदि जीवंत रहना है, तो अहिंसा के अलावा कोई उपाय नहीं है ।
आचार्यश्री मूलतः कन्नड़भाषी है, किंतु उन्होंने मराठी, गुजराती, तथा तमिल पर मातृभाषावत अधिकार प्राप्त किया है। इसके साथ ही ये संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के भी जाता है। हिन्दी में भी अधिकारपूर्वक प्रवचन करते और लिखते हैं। उन्होंने हिन्दी, मराठी, कन्नड़ और गुजराती में अनेक ग्रंथों की रचना की है। इससे उनकी सृजन-शक्ति का पता चलता है। उनकी दृष्टि में भारत की भावात्मक एकता के लिए विभिन्न भाषाओं में साहित्य लेखन और विचारों का आदान-प्रदान आवश्यक है। वे चाहते हैं कि उत्तर और दक्षिण भारत के लोग एक-दूसरे की भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन करें। इसका प्रारम्भ उन्होंने स्वयं किया और अपने भक्तों को एक राह दिखाई । एतदर्थं उन्होंने तमिल, कन्नड़, मराठी और गुजराती के ग्रंथों का हिन्दी में और हिन्दी के ग्रन्थों का दक्षिणी भाषाओं में अनुवाद किया। इसके लिए मूल ग्रंथ की भाषा का ठोस ज्ञान आवश्यक है, तभी अनुवादक उस ग्रन्थ के भावों के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकता है। अनुवाद की प्रामाणिकता के लिए यह आवश्यक है। इस दिशा में आचार्य रत्न की मान्यता सर्वविदित है । फिर भी, विनम्रता इतनी कि वे अपने पाठकों से कहते हैं कि आप केवल सार ग्रहण करें, क्योंकि मैं भाषा-अल्पज्ञ हूं। अनेक भाषाओं के ज्ञाता और अनेक ग्रन्थों के स्रष्टा होने पर भी, उनमें अहंकार बिल्कुल नहीं है। अच्छे से अच्छा लिखे और अहंकारी रहे, वह मुक्ति है, किन्तु यह तपी और साधक, जिसमें अपने कर्तापन का आभास भी नहीं, उसके लिए यह कठिन नहीं है। जो अपने को परभाव का कर्ता मानता ही नहीं, उसमें किसी ग्रन्थ के लेखक, अनुवादक अथवा सम्पादक होने का दम्भ कैसे जन्मेगा ? जन्मेगा ही नहीं । दीर्घ तपसाधना ने आचार्यश्री को अभिमान मेरु पर नहीं चढ़ने दिया। आचार्यश्री सही अर्थों में साधु हैं।
आज वृद्धावस्था में भी वे अनुसन्धित्सुओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने असंख्य हस्तलिखित प्रतियां पड़ी हैं। जहां भी गये, हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारों को अवश्य टटोला। आचार्यश्री का कथन है कि वहां ऐसे-ऐसे रत्न पड़े हैं, जिनसे भारतीय साहित्यकार अभी तक नितांत अनभिज्ञ हैं । उनका सम्पादन और प्रकाशन होना ही चाहिए। यदि जैन शोध संस्थान और विश्वविद्यालय इस कार्य को सम्पन्न कराएँ तो उनका महत्त्व बढ़ेगा। शोध संस्थानों का तो यही उद्देश्य होना चाहिए। यह एक श्रम-साध्य कार्य है। केवल श्रम ही नहीं, उसके पीछे लगन की ठोस भूमिका भी जरूरी है । एतदर्थ एक श्रमण साधु एक उपयुक्त पात्र है।
जैन साधु जानता है कि आत्मज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, किन्तु श्रुतज्ञान भी अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। उसे नकारा नहीं जा सकता । आचार्यश्री एक दिगम्बर आचार्य है। योग और तप ही उनका जीवन है वे सुमुसु है, किन्तु प्राचीन भण्डारों में छिपे विलुप्तप्राय भूत को प्रकाश में लाने के लिए जो कुछ वे कर सकते हैं, कर रहे हैं। इसे भी वे ज्ञानसाधना ही मानते हैं। आत्मज्ञान और श्रुतज्ञान का ऐसा समन्वय और कहीं देखने को नहीं मिलता। वे साधु और विद्वान दोनों के लिए ही अनुकरणीय है।
आचार्य परमदयालु है उठते-बैठते, सोते-जाते उन्हें सदैव जी
कृपापरत्वम्' का ध्यान रहता है। जिसका हृदय व दूसरों की मंगल भावना से ओत-प्रोत होगा, वह स्वयं मंगल रूप है। आचार्यश्री मंगल की साक्षात् प्रतिमा हैं। उनका शरीर, मन, प्राण सब कुछ जनजन, जीव-जीव के मंगल में लगा हुआ है। यही कारण है कि उनके दर्शन मात्र से लोग आनन्दित हो उठते हैं। चारों ओर सुख-शान्ति छा जाती है । दुखियों के दुःख दूर हो जाते हैं और चिन्तातुर निश्चिन्तता का अनुभव करते हैं। जिसके हृदय में मंगल है, उससे जड़-चेतन दोनों का मंगल होगा, ऐसा वैज्ञानिकों के प्रयोगात्मक परीक्षणों से भी सही साबित हुआ है। रूस में इस प्रकार के अनेक प्रयोग किये गए हैं।
इस सन्दर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र का एक कथन द्रष्टव्य है। उनके अनुसार जो दुखी जीवों की वेदना का अनुभव नहीं करते वे अपनी वेदना को भी नहीं जान पाते। अपने को जानने के लिए परवेदना का अनुभव आवश्यक है। ऐसा किये बिना, अपने चैतन्य की उपासना मोह और अज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो पर वेदना को नहीं जानते और निज को जानने का प्रयत्न करते हैं, वे उसी भांति दुर्गति को प्राप्त हो जाते हैं, जैसे आंखें बन्द कर चलने वाला हाथी किसी गहरे गड्ढे में गिर जाता है। अर्थात् स्वचेतनतत्त्व की कहानी तभी समझ में आती है, जब वह परवेदना का अनुभव करता है । आचार्य अमृतचन्द्र का वह श्लोक इस प्रकार है
१०
न कदाचनापि परवेदनां बिना निज वेदना जिन ! जनस्य जायते ।
मोनालिशा पररक्तिरिक्त चिपारित मोहिताः। (लघुतरबस्फोट)
,
1
'आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ' एक बृहद्काय ग्रंथ है। इसमें बारह खण्ड हैं आस्था का अर्घ्य, कालजयी व्यक्तित्व या सृजन संकल्प, अमृत कण, जैनदर्शन मीमांसा जैन तत्वदर्शन आधुनिक संदर्भ जैन प्राप्य विद्याएं जैन साहित्यानुशीलन, जैन धर्म एवं आचार, जैन इतिहास, कला और संस्कृति, गोम्मटेश दिग्दर्शन प्रथम पांच खण्ड आचार्यश्री के जीवन और व्यक्तित्व को उजागर करते हैं, शेष में जैन दर्शन, जैन सिद्धान्त, जैन इतिहास-संस्कृति और पुरातत्व का विवेचन-विश्लेषण है। कुल मिलाकर यह पंच अभिनन्दन ग्रंथ
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org