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प्रस्तावना
यत्र स्यावाद सिद्धान्तो यत्र वीरो दिगम्बरः ।
तत्र श्रीविजयो भूतिघवानन्दो घ वादरः॥ परम पूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज श्रमण परम्परा के प्रतीक हैं । श्रमणों का स्मरण, ऋग्वेद से श्रीमद्भागवत तकएक लम्बी जैनेतर श्रृंखला में भी श्रद्धापूर्वक किया गया है। श्रमण शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल में उपलब्ध होता है। वहाँ ऋषभदेव, अजितनाथ और नेमिनाथ की प्रशंसा में अनेक ऋचाओं की रचना की गई है। डॉ. राधाकृष्णन् ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'इंडियन फिलासफी' में ऐसा लिखा है। ऋग्वेद के एक सूक्त १०/१३६ में मुनियों का अनोखा वर्णन उपलब्ध होता है। तैत्तिरीयाण्यक (२/७) में श्रमणों के सम्बन्ध में लिखा है-वातरशनानामृषीणांमूर्ध्वमंथिनः । सायणाचार्य ने इसकी व्याख्या की है-वातरशनाख्या: ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्व मंथिनो वभूवुः । बृहदारण्यकोपनिषद् (४/३/३२) में श्रमणों को पूज्य कहा गया है। श्रीमद्भगवत्गीता (२/५६) तथा श्रीमद्भागवत (५।३।२०) में भी उनका भक्त्यात्मक वर्णन किया गया है । जैनाचार्य रविषण ने श्रमण के श्रम शब्द पर बल देते हुए लिखा-तपसा प्राप्य सम्बन्धं तपो हि श्रम उच्यते। आचार्य देशभूषण जी ने इस दीर्घकालीन विरासत को जिया है। बचपन से अब तक ८० वर्ष का उनका जीवन तप में ही बीता है। इस कलियुग में ऐसे श्रम-साध्य तप का अभिनन्दन कर हम स्वयं अभिनन्दनीय बने हैं। महाराज तो वीतरागी हैं, उन्हें न निन्दा से अर्थ है और न प्रशंसा से । वह दोनों से ही ऊपर हैं।
___ आज वह आचार्य पद पर दशकों से प्रतिष्ठित हैं। उन पर 'चरे राहि चागुरौं' से 'आचार्यते आचार्यः' व्युत्पत्ति पूर्णरूप से घटित होती है। उन्होंने केवलि-प्रणीत धर्म को स्वयं अपने आचरण में ढाला और दूसरों को ढालने की विधि बताई। उनका संघ अनुशासन-बद्ध है। वह आचार्यश्री के दिखाये मार्ग पर आत्महित के लिए ऊर्ध्वपंथी है। आचार्यश्री ने आचरण के जिस सम्यक् पथ पर संघ को आगे बढ़ाया, वह उसी पर चला, तिलमात्र इधर-उधर नहीं हुआ, यह सब ने देखा है। यही कारण है कि उनके शिष्य आचार्य, एलाचार्य और उपाध्याय-जैसे पावन पदों पर प्रतिष्ठित हैं । वे सभी देश को सम्यक् दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। इससे जन-जन में धर्म और नैतिकता अपने सही अर्थों में प्राणवंत हो उठेगी, ऐसा हमें विश्वास है।
आचार्यश्री उच्चकोटि के आध्यात्मिक शिक्षक हैं। उन्होंने ईसा की पहली शती में हुए आचार्य कुन्दकुन्द के इस विधि वाक्य कोआचार्य वही है जो साधारण साधुओं को कर्मों का क्षय करने वाली शिक्षा देता है-जीवन-कसौटी माना है। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्थूल से सूक्ष्म की ओर शनैः-शनैः किन्तु दृढ़तापूर्वक बढ़ने का सूत्र दिया है। इसी कारण वे अध्यात्म विद्या के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान को भी कम महत्त्व नहीं देते। उनकी दृष्टि में टेक्नीकल शिक्षा को अध्यात्म-मूला होना ही चाहिए। ऐसा हुए बिना वह विश्व विध्वंस करेगी, यह सुनिश्चित है। कोई भी व्यावहारिक शिक्षा जो केवल बाह्य को समुन्नत बनाती है, अंतः को नहीं, वह ऐसे ही है जैसे किसी का एक कदम बढ़ता जाये और दूसरा जहाँ-का-तहाँ रहे । वह टूट जायेगा। लक्ष्य तक पहुंचे बिना बीच में ही ढह पड़ना, उसकी नियति बन जायेगा। अध्यात्म के बिना मानव में छिपा अतिमानव कभी प्रगट न हो सकेगा, ऐसा वे मानते हैं । वे स्थूल को नकारते नहीं, किन्तु उसकी सार्थकता तभी है, जब वह सूक्ष्म को पा सके । आचार्यश्री की दृष्टि सूक्ष्म पर टिकी है। स्थूल और सूक्ष्म का-पुद्गल और चेतन का-शरीर और आत्मा का अनादिकालीन सम्बन्ध है । पुद्गल दृष्ट है, मूत्तिक है, साकार है और गम्य है। उसे पकड़ कर हम सूक्ष्म तक पहुँच सकते हैं। ऐसा किये बिना हमारी गुजर नहीं। मानव संस्कृति के समाप्त होने का डर है।
स्थूल से सूक्ष्म तक की यात्रा बिना दिव्य चरित्र के नहीं हो सकती। आचार्यश्री की दृष्टि में दर्शन, ज्ञान और चरित्र को एक साथ चलना चाहिए। जैन आचार्यों ने 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:' से यह सिद्ध किया है कि हम में श्रद्धा हो, ज्ञान हो और चारित्र हो, तभी हम 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के सूत्र को चरितार्थ कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। आज के दार्शनिक, वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ चरित्र के बिना ही, जनमानस को एक सही दिशा में ले जाने का दावा करते हैं, किंतु स्पष्ट है कि विश्व एक खतरनाक मोड़ ले रहा है। हिंसा और आग्नेयास्त्र एक चरम सीमा तक बढ़ चुके हैं। आचार्य देशभूषण जी महाराज ने अहिंसा को ही सम्यक् चरित्र कहा। उसके बिना शिक्षा अधूरी है और मानव जीवन भी। उन्होंने अपने को इसी रूप में ढाला है। वे अहिंसा के अवतार हैं। वे जन-मानस को इसी दिशा में अग्रसर करने के लिए प्रयत्नशील
आस्था और चिन्तन
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