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भट्टारक संप्रदाय
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सूरस्थ गण के पल्लपंडित का उल्लेख शक १०४६ के एक लेख में हुआ है जिस में उन्हें पाल्य कीर्ति के समान प्रसिद्ध कहा है [ ले. १५ ] । इनकी गुरुपरंपरा अनंतवीर्य - बाळचंद्र - प्रभाचंद्र - कल्नेले देव -अटोपवासीहेमनंदि - विनयनंदि - एकवीर ऐसी है । पलपंडित एकबीर के गुरुबंधु थे ।
मुनिसेन के शिष्य श्रीधरसेन ने संस्कृत शब्दों का एक कोष लिखा है जिस का नाम मुक्तावली या विश्वलोचन कोष है [ ले. १६ ] । इस कोश की विशेषता यह है कि इस मे अकारान्त क्रम से शब्दों की रचना की गई है। श्रीरसेन का समय संभवतः १४ वीं सदी है ।
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सेन गण की पट्टावली में उल्लिखित आचार्यों में सोमसेन से कुछ ऐतिहासिक स्वरूप दिखाई देता है । सोमसेन का वर्णन कर्णाटकराज द्वारा पूजित ऐसा किया गया है [ ले. १७ ] ।
इन के बाद श्रुतवीर का उल्लेख है [ ले. १८ ] | आप अलकेश्वरपुर से भौच गये थे जहां आप ने महमदशाह की सभा मे समस्यापूर्ति की थी। इस के कारण सारे लोगों की नजर लग जाने से सिर्फ अठारह साल की आयु में ही आप स्वर्गस्थ हो गये ।
५ शाकटायन व्याकरण, स्त्रीमुक्तिकेवलिभुक्ति प्रकरण आदि के कर्ता जो ९ वीं सदी मे हुए थे ।
६ इन के समय तथा मेदिनी और हेमचंद्र के प्रभाव के लिए देखिए जैन सि. भा. वर्ष पृ. ९ मे श्री. गोडे का लेख ।
७ इस की प्रकाशित प्रति के लिए देखिए जैन सि. भा. वर्ष ९ पृ. ३८ । यहाँ उपयुक्त प्रति कुछ भिन्न और अधिक अच्छी मालूम होने से उसी का उपयोग किया गया है ।
८ पहले जिन का उल्लेख आ चुका है उन के अतिरिक्त पट्टावली में इस के पहले लक्ष्मीसेन, रविषेण, रामसेन, कनकसेन, बंधुषेग, विष्णुसेन, मलिषेण, शिवायन, महावीर, भावसेन, अरिष्टनेमि, अर्हल, अजितसेन, गुणसेन, सिद्धसेन, समन्तभद्र, शिवकोटि, नेमिसेन, छत्रसेन, लोहसेन, सूरसेन, कमलभद्र, देवेंद्र सेन, दुर्लभसेन, श्रीषेण और लक्ष्मीसेन इन का वर्णन किया गया है ।
९ अलकेश्वर शायद अंकलेसर का रूपान्तर है जो गुजरात में है । उल्लिखित
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