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बलात्कार गण - उत्तर शाखा
बलात्कार गण की उत्तर भारत की पीठों की पट्टावलियोंमें वसन्तकीर्ति पहले ऐतिहासिक भट्टारक प्रतीत होते हैं। पट्टावलियों के अनुसार ये संवत् १२६४ की माघ शु. ५ को पट्टारूढ हुए [ ले. २२३ ] तथा १ वर्ष ४ मास पट्ट पर रहे। इन्हें बनवासी और शेर द्वारा नमस्कृत कहा गया है ले. २२४ ।। श्रुतसागर सूरि के कथनानुसार ये ही मुनियों के वस्त्रधारणके प्रवर्तक थे। यह प्रथा इन ने मण्डपदुर्ग मे आरम्भ की (ले. २२५)। इनकी जाति बघेरवाल और निवासस्थान अजमेर कहा गया है (ले. २२३ )। इनका बिजौलियाके शिलालेखमें भी उल्लेख हुआ है (ले. २४४ )।
___ वसन्तकीर्ति के बाद विशालकीर्ति" और उन के बाद शुभकीर्ति पट्टाधीश हुए [ ले. २२६-२७ ] शुभकीर्ति एकान्तर उपवास आदि कठोर
३२ इनके पहले क्रमशः गुप्तिगुप्त, माघनन्दि, जिनचन्द्र, पद्मनन्दि कुन्दकुन्द, उमास्वाति, लोहाचार्य, यशःकीर्ति, यशोनन्दि, देवनन्दि, गुणनन्दि, वज्रनन्दि, कुमारनन्दि, लोकचन्द्र, प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र, भानुनन्दि, जटासिंहनन्दि, वसुनन्दि, वीरनन्दि, रत्ननन्दि, माणिक्यनन्दि, मेघचन्द्र, शान्तिकीर्ति, मेरुकीर्ति, महाकीर्ति, विश्वनन्दि, श्रीभूषण, शीलचन्द्र, श्रीनन्दि, देशभूषण, अनन्तकीर्ति, धर्मनन्दि, विद्यानन्दि,रामचन्द्र, रामकीर्ति, अभयचन्द्र, नरचन्द्र, नागचन्द्र, नयनन्दि, हरिश्चन्द्र, महीचन्द्र, माधवचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, गुणकीर्ति, गुणचन्द्र, वासवचन्द्र, लोकचन्द्र, श्रुतकीर्ति, भानुचन्द्र, महाचन्द्र, माघचन्द्र, ब्रह्मनन्दि, शिवनन्दि, विश्वचन्द्र, हरिनन्दि, भावनन्दि, सुरकीर्ति, विद्याचन्द्र, सुरचन्द्र, माघनन्दि, ज्ञाननन्दि, गंगनन्दि, सिंहकीर्ति, हेमकीर्ति, चारनन्दी, नेमिनन्दी, नाभिकीर्ति, नरेन्द्रकीर्ति, श्रीचन्द्र, पद्मकीर्ति, वर्धमान, अकलंक, ललितकीर्ति, केशवचन्द्र, चारुकीर्ति और अभयकीर्ति का उल्लेख हुआ है ।
३३ राजस्थान के अन्तर्गत माण्डलगढ ।
३४ पट्टावलियोंमें वसन्तकीर्ति के बाद प्रख्यातकीर्तिका उल्लेख है किन्तु (ले. २४४ ) में इनका नाम नहीं है। शायद गुर्वावलीके श्लोकके विशेषणको विशेष नाम मान लेनेसे पट्टावली में यह गलती हुई है।
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