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भट्टारक संप्रदाय
परिशिष्ट २
काष्ठा-संघ की स्थापना मध्ययुगीन जैन साधुओं के इतिहास में काष्ठासंघ का स्थान महत्त्वपूर्ण है । आचार्य देवसेन ने दर्शनसार में - जिसकी रचना संवत् ९९० में धारा नगरी में हुई थी-कहा है कि आचार्य विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने संवत् ७५३ में नंदियड-वर्तमान नांदेड ( बम्बई प्रदेश ) में इस संघ की स्थापना की थी। इस संघ का सर्वप्रथम शिलालेखीय उल्लेख संवत् ११५२ में हुआ है । 'काष्ठासंघ महाचार्यवर्य देवसेन' की चरणपादुकाओं की स्थापना का इस लेख में निर्देश है।
चौदहवीं सदी के बाद इस संघ की अनेक परम्पराओं के उल्लेख मिलते हैं। भ. सुरेन्द्रकीर्ति के अनुसार-जिनका समय संवत् १७४७ है-ये परम्पराएं चार भेदों में विभाजित थीं-माथुर गच्छ, बागड़ गच्छ, लाडबागड गच्छ तथा नन्दीतट गच्छ। सुरेन्द्रकीर्ति स्वयं नन्दीतट गच्छ के भट्टारक थे।
आश्चर्यकी बात यह है कि बारहवीं सदी तक माथुर, बागड़ तथा लाडबागड इन परम्पराओं के जो उल्लेख मिलते हैं, उनमें इन्हें संघ की संज्ञा दी गई है; तथा काष्ठासंघ के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं कहा है।
माथुर संघ के प्रसिद्ध आचार्य अमितगति हैं । आप ने संवत् १०५० से १०७३ तक कोई बारह ग्रन्थ लिखे । इन में से अधिकांश के अन्त में प्रशस्ति में माथुर संघ का यशोगान है; किन्तु काष्ठासंघ का नामनिर्देश भी नहीं है।
इसी तरह लाडबागड - जिसे संस्कृत में लाटवर्गट कहा गया हैगण के तीन उल्लेख मिलते हैं । इस गण के आचार्य जयसेन ने संवत् १०५५ में सकलीकरहाटक-वर्तमान कहाड ( बम्बई प्रदेश )-में धर्म. रत्नाकर नामक ग्रन्थ लिखा । प्रायः इसी समय इस गण के दूसरे आचार्य
१ जैन हितैषी, वर्ष १३, पृ. २५७--२५९। २ अनेकान्त, वर्ष १०, पृ. १०५। ३ दानवीर माणिकचन्द्र, पृ. ४७। ४ जैन साहित्य और इतिहास, पृ. २८३ -२८५ । ५ अनेकान्त वर्ष ८, पृ. २०१..२०३ ।
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