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भट्टारक संप्रदाय
करने की अनुज्ञा प्राप्त की तथा प्रस्तरी में राजा वैजनाथ से सम्मान पा कर पार्श्वनाथ मन्दिर में सहस्रकूट जिनमूर्ति की स्थापना की (ले. ६४०)। अनुश्रुति के अनुसार आप ने आकाश मार्ग से गमन किया था (ले.६४२) ।
नरेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य प्रतापकीर्ति हुए। आप ने पाथरी नगर में केदारभट्ट को विवाद में पराजित किया। पंडित भूप ने आप की प्रशंसा की है तथा आप की पिच्छी चामर की थी ऐसा कहा है (ले. ६४२-४३) ।
प्रतापकीर्ति के पट्टशिष्य त्रिभुवनकीर्ति हुए । इन की आम्नाय के कुछ लोग देवगिरि में रहते थे (ले. ६४४)।२६
१२५ वैजनाथ का राज्य काल ज्ञात नहीं होता।
१२६ ज्ञात होता है कि इन के बाद इस परम्परा में कोई भष्टारक नहीं हुए क्यों कि इस आम्नाय के श्रावकों ने नन्दीतट गच्छ के भट्टारकों द्वारा अनेक प्रतिठाएं करवाने के उल्लेख मिले हैं। देखिए ले. ६८४-८६ आदि ।
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