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Achar
बलात्कार गण-ईडर शाखा
१० को श्रीसंघ ने आप की भगिनी आर्यिका देवश्री के लिए पद्मनन्दि पंचविंशति की प्रति लिखवाई थी [ले. ३६५] । पट्टावली के अनुसार मल्लिराय, भैरवराय और देवेन्द्रराय ने ६ विजयकीर्ति का सन्मान किया था [ ले. ३६६] ।
विजयकीर्ति के शिष्य शुभचन्द्र भट्टारक हुए । आप ने त्रिभुवनकीर्ति ५३ के आग्रह से संवत् १५७३ की आश्विन शु. ५ को अमृतचन्द्र कृत समयसार कलशों पर परमाध्यात्मतरंगिणी नामक टीका लिखी ।
आप ने संवत् १६०७ की वैशाख कृ. ३ को एक पंचपरमेष्ठी मूर्ति स्थापित की । संवत् १६११ की भाद्रपद में आप ने करकण्डु चरित्र लिखा । क्षेमचंद्र और सुमतिकीर्ति के आग्रह से संवत् १६१३ की माघ शु. १० को आप ने हिसार में कार्तिकेयानुप्रेक्षा पर टीका लिखी । इस समय लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र और ज्ञानभूषण भट्टारक बलात्कार गण के विभिन्न पीठों पर विराजमान थे [ ले. ३६७-७० ] । ५
संशयिवदनविदारण, षड्दर्शनप्रमाणप्रमेयानुप्रवेश, अंगपण्णत्ती तथा नन्दीश्वर कथा ये आप की अन्य रचनाएं हैं [ले. ३७१-७४ ] । संवत् १६०८ की भाद्रपद द्वितीया को सागवाडा में आप ने पाण्डवपुराण की रचना पूरी की । इस में वर्णी श्रीपाल ने आप को सहायता दी थी [ले. ३७५ ] । इस पुराण की प्रशस्ति से उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त आप की १८ अन्य रचनाओं का पता चलता है जो इस प्रकार हैंचन्द्रनाथचरित, पद्मनाथचरित, प्रद्युम्नचरित, जीवन्धरचरित, चन्दना कथा,
६२ ये तीनों कर्णाटक के स्थानीय शासक होंगे। इन का निश्चित राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका।
६३ ये सम्भवतः जेरहट शाखा के पहले भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति ही हैं ।
६४ ये तीनों क्रमशः सूरत के भट्टारक हुए हैं। किन्तु एक ही समय एक ही शाखा के तीन भट्टारकों का उल्लेख होना स्वाभाविक नहीं । अत: ज्ञानभूषण से यहां अटेर शाखा के शानभूषण का अभिप्राय समझना चाहिए ।
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