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सेनगण
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गया है कि शान्तिसेन से आप की मुलाकात कोल्हापुर मे हुई और वहां से आप कारंजा पधारे थे ( ले. ७८ ) । इसी समय आप के द्वारा एक पार्श्वनाथ मूर्ति भी स्थापित हुई थी (ले. ७९ ) । संवत् १८४६ की कार्तिक शुक्र १४ को आप ने एक मुनिसुव्रत मूर्ति स्थापित की ( ले. ८० ) । आप के प्रिय शिष्य रत्नकीर्ति ने संवत् १८६९ की चैत्र शुक्ल ९ को सकलभूषण कृत षट्कर्मोपदेश रत्नमाला ग्रन्थ का मराठी श्लोकबद्ध अनुवाद अमरावती मे पूरा किया (ले. ८१ ) | आप की एक पूजा माधव द्वारा और एक स्तुति राघव द्वारा बनाई गई है (ले. ८२-८३ ) । मासाह ने आप की प्रशंसा की है (ले. ८४ ) ।
सिद्धसेन के पट्ट पर लक्ष्मीसेन अभिषिक्त हुए। आप ने संवत् १८९९ की चैत्र शुक्ल १० को नागपुर मे गौतम गणधर पादुकाओं की स्थापना की ।"
२० स्थानिक अनुश्रुति से पता चलता है कि लक्ष्मीसेन का स्वर्गवास संवत् १९२२ मे हुआ। उन के कोई तेरह वर्ष बाद मुडबिद्री से आए हुए कुमार चंद्रय्या पट्टाभिषिक्त किये गये तथा आप का नूतन नाम वीरसेन रखा गया । आप की आयु उस समय २८ वर्ष थी । कोई ६० वर्ष तक पट्टाधीश रह कर आप ने कई मूर्ति प्रतिष्ठाएं कीं। इन मे नागपुर, कलमेश्वर, कारंजा, पिंपरी, भातकुली आदि स्थानों की प्रतिष्ठाएं विशेष महत्त्वपूर्ण रहीं । आचार्य कुंदकुंद कृत समयसार पर आप की बहुत श्रद्धा थी तथा उस विषय पर आप के प्रवचन बहुत अच्छे हुआ करते थे । आप का स्वर्गवास ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया संवत् १९९५ मे हुआ । आप की समाधि कारंजा में है ।
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