________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भट्टारक संप्रदाय
का अनुकरण मात्र है । वास्तव में इन के प्रगुरु धर्मभूषण के समय से ही भट्टारक पीठ कारंजा में स्थापित हो चुका था।
धर्मचन्द्र के बाद देवेन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । आप ने संवत् १७५६ में एक चौवीसी मूर्ति स्थापित की [ ले. १४८ ] । कारंजानिवासी बघेरवाल शिष्यों के साथ आप ने शक १६४३ की पौष कृष्ण १२ को श्रवणबेलगोल की यात्रा की ( ले. १५९ । इसी वर्ष आप ने कल्याणमन्दिर पूजा लिखी तथा विट्टल के आग्रह से विषापहार पूजा भी लिखी । ये रचनाएं क्रमशः कारंजा और साहार में हुई [ले, १५०-५१]। शक १६५० की पौष शुक्ल २ को आप ने नासिक के पास त्रिंबक ग्राम के पास के गजपंथ पर्वत की वंदना की । ले. १५२ ] ब ग्यारह दिन के बाद मांगीतुंगी पर्वत की यात्रा की [ ले. १५३ ] । इस समय जिनसागर, रत्नसागर, चंद्रसागर, रूपजी, वीरजी आदि छात्र आप के साथ थे । इस के बाद गिरनार की यात्राके लिए जाते हुए आप सूरत ठहरे जहां माघ शुक्ल १ को आणंद नामक श्रावकने णायकुमार चरिउ की एक प्रति आपको अर्पित की [ ले. १५४ ] । शक १६५१ की वैशाख कृष्ण १३ को आपने केशरियाजी की बंदना की [ ले. १५५ ] तथा उसी वर्ष मार्गशीर्ष शुक्ल ५ को तारंगा पर्वत और कोटिशिला की वंदना की (ले. १५६ ) । इसी वर्ष पौष कृष्ण १२ को गिरनारकी और माघ कृष्ण ४ को शत्रुजय पर्वतकी यात्रा आपने पूरी की ले. १५७-५८ ] । सूरत में आप ठहरे थे उस समय संवत् १७८७ की भाद्रपद शुक्ल ५ को आर्यिका पासमती के लिए आपने श्रीचन्द्र विरचित कथाकोष की एक प्रति लिखवाई [ले. १५९ ] । आपकी लिखी एक नन्दीश्वर आरती उपलब्ध है ले. १६० ] । आगरा निवासी बनारसीदास के पुत्र जीवनदास को पहले आपके विषय में अनादर था, किन्तु सूरत के चातुर्मास में आप की विद्वत्ता देख कर वे आप के शिष्य बन गये । बुद्धिसागर और रूपचंद ने भी आपकी स्तुति की ले. १६१]। आप के शिष्य
For Private And Personal Use Only