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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१९ गलेमें मौक्तिक माला और कानोंमें कुण्डल हैं। देवीके ऊपर एक मण्डप-सा बना हुआ है, जिसपर तीन जिन-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। चारों कोनोंपर भी छोटी-छोटी जिन-मूर्तियाँ हैं। मूर्तिकी चरणचौकीपर अभिलेख भी है। उसके अनुसार देवी-प्रतिमाको सं. १२२९ (सन् १९७२) में कुछ कुटुम्बोंके व्यक्तियोंने वर्धमानपुर (बदनावर ) के शान्तिनाथ मन्दिर में विराजमान किया। इसी मन्दिरमें शक सं. ७०५ ( ई.७८३ ) में आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराणकी रचना पूर्ण की थी।
जैन संग्रहालय उज्जैनमें बदनावरसे प्राप्त कई देवियोंकी मूर्तियां सुरक्षित हैं। यहाँ अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, महामानसी, रोहिणी, गोमेधा, निर्वाणी और ब्रह्माणी की कई स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी हैं।
विक्रम विश्वविद्यालयमें चक्रेश्वरी देवीकी एक अद्भुत प्रतिमा उपलब्ध है। देवी अष्टभुजी और गरुड़ासना है। किन्तु पांच हाथ भग्न हैं। शेष हाथोंमें चक्र और वज्र हैं । गरुड़ मनुष्याकृतिके रूपमें प्रदर्शित है और वह अपने दोनों हाथोंको ऊपर उठानेका उपक्रम करता प्रतीत होता है। देवीके मस्तकके ऊपर ऋषभदेव जिनकी प्रतिमा है। एक वृक्षका अंकन है, जिसपर दो वानर प्रदर्शित हैं। देवीके दोनों पावों में उनके सेवक-सेविका, देव-देवी आकाशगमन कर रहे हैं। मध्य भागमें नवग्रहोंका अंकन बहुत ही कलापूर्ण और भव्य बन पड़ा है। किसी देवी-प्रतिमाके साथ नवग्रहोंका अंकन प्रायः देखने में नहीं आता।
इनके अतिरिक्त निम्नलिखित स्थानों पर चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, ज्वालामालिनी, सरस्वती, मनोवेगा आदि देवियोंको दुर्लभ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं---- कारीतलाई, खजुराहो, पावागिरि, ग्यारसपुर, सिद्धवरकूट, सोनागिरि, गन्धर्वपुरी, बीना बारहा, थूबौन, द्रोणगिरि, रेशंदीगिरि, गुरीलागिरि, खन्दार, चूलागिरि, रखेतरा आदि।
खजराहोके आदिनाथ मन्दिरके द्वारके सिरदलपर देवियोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। मन्दिरकी बाह्य भित्तियोंपर १६ देवियोंकी मूर्तियां बनी हुई हैं जो सम्भवतः १६ विद्या देवियां हैं। यहाँके पार्श्वनाथ मन्दिरके महामण्डप और प्रवेशद्वारके ऊपर ललाट-बिम्बपर दसभुजी चक्रेश्वरी, त्रिमुख ब्रह्माणी, चतुर्भुज सरस्वती, चतुर्भुज लक्ष्मी, षड्भुजी सरस्वती आदि देवियोंका अंकन मिलता है। यहाँके सभी प्राचीन जैन मन्दिरोंके शिखरकी रथिकाओं और तोरणपर इन शासन-देवताओंकी मूर्तियाँ बहुसंख्यामें मिलती हैं। - इस प्रकार मध्यप्रदेशमें चन्देल, कलचुरि, परिहार और परमार कालकी अनेक देव-देवी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। यह काल ७वीं से १२वीं शताब्दी तकका माना जाता है। लगता है, इस कालमें शासन-देवियोंकी मान्यता मध्यप्रदेशमें विशेष बढ़ी हुई थी। यद्यपि इस कालकी २४ यक्षियों, १६ विद्या देवताओं और ६४ अधिष्ठात देवियोंकी समवेत अथवा एकाकी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु इन देवियोंमें भी अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, सरस्वती और लक्ष्मीकी मूर्तियाँ अत्यधिक मिलती हैं।
देवायतन
.. देवालय साधना और अर्चनाके स्थान होते हैं। वहाँ जाकर मनुष्यके मनको आध्यात्मिक शान्ति और सन्तोषका अनुभव होता है। साहित्यिक साक्ष्योंके आधारपर कहा जा सकता है कि कर्मभूमिके प्रारम्भिक कालसे जिनायतनोंका निर्माण होता रहा है। भगवज्जिनसेनकृत 'आदिपुराण'के अनुसार इन्द्रने जब अयोध्याकी रचना की तो उसने सर्वप्रथम पांच जिनालयोंकी रचना की अर्थात् चारों दिशाओंमें एक-एक तथा एक जिनालय नगरके मध्यमें। इसके पश्चात् भगवान्