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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस प्रशस्तिमें भगवान आदिनाथकी जिस प्रतिमाका उल्लेख किया गया है, वह आदिनाथकी उस प्रतिमासे भिन्न प्रतीत होती है जो ५७ फुट ऊंची है। इसके दो कारण हैं-प्रथम तो दोनों प्रतिमाओंके आकारमें अन्तर है, एक ५० फुटकी है तो दूसरी १६|| फुट की। दूसरा कारण यह है कि बड़ी मूर्तिके लेखमें प्रतिष्ठाका काल संवत् १४९७ दिया गया है, जबकि प्रशस्तिमें उल्लिखित प्रतिमा इससे पूर्वकी है क्योंकि उक्त ग्रन्थ ( सम्मत्त गुणणिहाण ) की रचना' संवत् १४९२ में हो चुकी थी। अतः यह प्रतिमा इससे पूर्वको होनी चाहिए। हाँ, बड़ी मूर्तिके प्रतिष्ठाकारक भी उक्त संघवी ही हैं। यह बात तो उसके मूर्ति-लेखसे भी सिद्ध होती है। वास्तवमें संघवीजीने एकाधिक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी थी और वे अन्य मूर्ति-निर्माताओं और प्रतिष्ठाकारकोंको पूर्ण सहयोग देते थे।
खेल्हा ब्रह्मचारी-इनके अनुरोध और भट्टारक यश कीर्तिके आदेशपर कविवरने 'सम्मइजिणचरिउ' ग्रन्थकी रचना की थी। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें खेल्हाके वंशका विस्तत परिचय दिया है। उससे ज्ञात होता है कि वे हिसारके अग्रवालजातीय गोयल गोत्रीय साहू तोसउके ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका विवाह तेजा साहूको पुत्री क्षेमोके साथ हुआ था। किन्तु सन्तान-लाभ न होनेके कारण इन्होंने अपने भतीजे हेमाको गोद ले लिया और गृहस्थीका सब भार उसे सौंपकर ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया। उसी समयसे वे ब्रह्म खेल्हा कहलाने लगे। उन्होंने ग्वालियर दुर्गमें चन्द्रप्रभ भगवान्की मूर्तिका निर्माण कराया, संघवी कमलसिंहके सहयोगसे शिखरबन्द मन्दिरका निर्माण और मूर्ति-प्रतिष्ठाका कार्य सम्पन्न किया। इस सम्बन्धमें कविवरने लिखा है
अम्हहं पसाएण भव दुह-कयंतस्स, ससिपह जिणेदंस्स पडिमा विसुद्धस्स ।
काराविया मई जि गोवायले तुंग, उडुचाविणामेण तित्थम्मि सुहसंग ॥ असपति साहू-इनके पिता महाराज डूंगरसिंहके अमात्य थे। कुछ विद्वानोंका मत है कि वे खाद्य-मन्त्री थे। साहू असपति भी सम्भवतः महाराज कीर्तिसिंहका मन्त्री या सेनापति था। अपने व्ययसे तीर्थयात्रा-संघ निकालनेके कारण इसे संघपतिकी उपाधि प्राप्त हुई थी। इसने अनेक जैन मूर्तियों और मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी थी। कविवरने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
पुणु वीयउ णंदणु सकियच्छे । रज्जकज्जधुर धरणसमच्छे । संघाहिउ असपत्ति असंकिउ । ससिपहकरणिम्मल जस अंकिउ॥ णिरसियपावपडलणिउरंवर । जेण पइट्टाविय जिणविवइ ।
-सावयचरिउ ६।२६।६-८ संघाधिप नेमदास-कविवरने संघाधिप नेमदासकी प्रेरणासे 'पुण्णासव कहाकोस'को रचना की थी। उस ग्रन्थको प्रशस्तिमें कविवरने नेमदासका परिचय देते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की है। उसके अनुसार नेमदास योगिनीपुर ( दिल्ली ) के निवासी साहू तोसउके चार पुत्रोंमें-से ज्येष्ठ पुत्र थे। उन दिनों चन्द्रवाड़नगर बहुत प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। अन्य नगरोंके अनेक व्यापारी व्यापारके निमित्त वहाँ आते-जाते थे। अनेक व्यापारी तो स्थायी रूपसे वहीं बस गये थे। नेमदास भी वहीं आकर रहने लगे और उन्होंने वहां व्यापारमें अपार धन कमाया। वे अत्यन्त उदार और धर्मपरायण व्यक्ति थे। उन्होंने धातु, पाषाण, विद्रुम और रत्नोंकी अनेक .
१. चउदह सय वाणउ उत्तरालि, वरिसइ गय विक्कमराय कालि।