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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कुछ मूर्ति-लेख इस प्रकार हैं
'संवत् १२१६ चैत्र सुदी ५ बुधे रामचन्द्र प्रणमति वर्धमानपुरान्वये सा. सुभोदित सुत बाला सीपा भार्या राया सुत बिल्ला भार्या वायणि प्रणमति ।'
'संवत् १२२९ वैशाख वदी ९ शुक्रे अहंदास वर्धनापुरे श्री शान्तिनाथचैत्ये सा. श्री सलन सा. गोक्षल भा. ब्रह्मादि भा. बड़देवादि कुटुम्बसहितेन निजगोत्रदेव्या श्री अच्छुप्ताः प्रतिकृतिः कारिता श्री कुलचन्द्रोपाध्यायः प्रतिष्ठिता।'
___ 'संवत् १३०८ वर्षे माघ सुदी ९ श्री वर्धनापुरान्वये पंडित रतनु भार्या साधु सुत साइगभार्या कोड़े पुत्र सा. असिभार्या होन्तु नित्यं प्रणमति ।'
'संवत् १२१६ ज्येष्ठ सुदी ५ बुधे आचार्य कुमारसेन चन्द्रकीर्ति वर्धमानपुरान्वये साधु वाहिब्वः सुत माल्हा भार्या पाणु सुत पील्हा भार्या पाहुणी, प्रणमति नित्यं ।' ____ 'संवत् १२३० माघ शुक्ला १३ श्री मूलसंघे आचार्य भट्टाराम नागयाने भार्या जमनी सुत साधु, सवहा तस्य भार्या रतना प्रणमति नित्यं धांधा बीलू बाल्ही साधू ।'
संवत् ११८२ माघ शुक्ला ९ हरा दिनैश्च अद्येह वर्द्धनपुरे श्री सियापुर वास्तव्य पुत्र सलन दे० आ०...सेवा प्रणमति नित्यम् ।'
इस प्रकार इन मूर्तिलेखोंसे ज्ञात होता है कि यहांकी अधिकांश जैन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा १२वीं-१३वीं शताब्दीमें हुई थी। इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा परमार कालमें हुई थी, किन्तु किसी भी मूर्तिलेखमें तत्कालीन नरेशका नामोल्लेख नहीं मिलता। किन्तु मूर्तिलेखोंमें उल्लिखित कालके द्वारा परमारवंशके तत्कालीन राजाओंका नाम ज्ञात किया जा सकता है। बदनावरकी मूर्तियोंके पाठपीठपर वि. सं. १२०२, १२०५, १२१९, १२२८, १२२९, १२३४, १३०८ और १४१५ मिलते हैं । परमार नरेशोंमें मुंज, भोज, उदयादित्य, विन्ध्यवर्मा, सुभटवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल जैतुगिदेव ( जयसिंह द्वितीय) ये नरेश बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। इन राजाओंके कालमें इनकी उदारता और कला प्रेमके कारण साहित्य और कलाको बड़ा प्रोत्साहन मिला। ये राजा जैन धर्मानुयायी न होते हुए भी जैन धर्मके प्रति उदार थे। अर्जुनवर्माका भाद्रपद सुदी १५ बुधवार संवत् १२७२ का एक दानपत्र मिला है जिसके अन्तमें लिखा है-'रचितमिदं महासान्धिविग्रहिक राजासलखणसमतेन राजगरुणा मदनेन' अर्थात् यह दानपत्र महासान्धिविग्रहिक राजा सलखणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। ये राजा सलखण ( सल्लक्षण) प्रसिद्ध जैन साहित्यकार पं.आशाधरके पिता थे, ऐसा माना जाता है। पं. आशाधरके पुत्र छाहड़ भी अर्जुनवर्माके राज्यमें किसी उच्च राज्यपदपर प्रतिष्ठित थे। पं. आशाधरने अपने पुत्र छाहड़के सम्बन्धमें प्रशस्तिमें लिखा है'रंजितार्जनभपतिम' अर्थात जिसने राजा अर्जनवर्माको प्रसन्न किया है। सम्भव है अपने पितामह सल्लक्षणके बाद छाहड़ राजाका सान्धिविग्रहिक बना हो। कहनेका सारांश यह है कि परमार नरेश उदार और सहिष्णु थे। उनके राज्यमें अनेक जैन राज्यके उच्च पदोंपर अधिष्ठित थे। ऐसे अनुकूल कालमें कलाको प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक था। बदनावर परमार नरेशोंकी दोनों राजधानियों-धारा और उज्जैनसे प्रायः समान दूरीपर ६४ कि. मी. अवस्थित है। एक प्रकारसे साहित्यके समान कलाको भी परमार नरेशोंका संरक्षण प्राप्त था। इसलिए इस नगरमें भी जैन मन्दिरों और मूर्तियोंपर परमार कलाका प्रभाव स्पष्ट अंकित है। इसलिए कहा जा सकता है कि जैन मूर्तियां इसी काल की देन हैं।