Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 334
________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ चिमणा पण्डित ने 'तीर्थ-वन्दना' नामक रचनामें पावागिरि सिद्धक्षेत्रको नमस्कार करते हुए भक्तिपूर्ण पद लिखा है जो इस प्रकार है "पावागिरि समीप सुवर्णभद्रा । महातपोनिधि चउरे मुनीन्द्रा॥ साधु मुक्ति गेले चलना तडागी। ऐसे सिद्धक्षेत्रा नमस्कार वेगी॥१८॥" इस प्रकार यद्यपि इन सभी विद्वानोंने इस तीर्थको सिद्धक्षेत्र स्वीकार किया है, किन्तु सबने इसका नामोल्लेख न करके किसी ने 'नद्यास्तटे' लिखा, किसीने 'चलणा नयतटकि' लिखा और किसीने न तो पावागिरि लिखा, न ही चलना नदीका तट, बल्कि ऊन लिखकर सिद्धक्षेत्रके रूपमें स्मरण किया। इन सबका अभिप्रेत पावागिरि ही रहा, जो चलना नदीके तटपर अवस्थित था। निर्वाण काण्डमें पावागिरिके शिखरसे सुवर्णभद्रादि मुनियोंकी मुक्ति मानी है और निर्वाणभक्ति तथा अन्य कई तीर्थ-वन्दनाओंमें चलना या नदी तटसे उनको मुक्त हुआ माना है। किन्तु विचार करनेपर इनमें कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। पावाके साथ गिरि शब्द होनेका अर्थ ही यह है कि यह पर्वत था। यह पर्वत चलना नदीके तटपर अवस्थित था। मुनियोंने इस पर्वत शिखरपर तपस्या करके मुक्ति प्राप्त की। इसीको विभिन्न लेखकोंने विभिन्न रूपोंमें वर्णित किया है। भिन्न-भिन्न रूपोंमें वर्णन करनेका एक मात्र कारण यह है कि पावागिरि नामके दो तीर्थ-क्षेत्र हैं। एक तो वह जहां रामके पुत्र और लाट नरेन्द्र आदि पांच करोड़ मुनि मुक्त हुए। दूसरा वह, जहाँसे सुवर्णभद्र आदि चार मुनियोंको मुक्ति लाभ हुआ। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें दोनों ही पावागिरि क्षेत्रोंका उल्लेख है और दोनोंके लिए 'पावागिरिवर सिहरे' लिखा है। किन्तु वही दोनोंके मध्य अन्तर भी डाल दिया है। एकमें (गाथा नं. ६) तो केवल 'पावागिरि वर सिहरे' रहने दिया, जबकि दूसरे क्षेत्रके वर्णनमें (गाथा नं. १३ ) में 'पावागिरिवर सिहरे' के साथ 'चलणाणईतडग्गे' लगाकर विशेषता प्रकट कर दी। निर्वाण-भक्तिमें इसका नाम न देकर केवल 'नद्यास्तटे' दिया है। श्रुतसागरने एक पावागिरिका उल्लेख 'लाटदेश पावागिरि के रूपमें किया तथा दूसरा निर्वाण-भक्तिके समान 'चलनानदी तट' इस रूप में दिया। ज्ञानसागरने पावागिरिके लिए 'पावागढ़ सुपवित्र देश गुज्जर मुखमण्डन' लिखकर उसे गुर्जर देशमें अवस्थित बताया और दूसरे पावागिरिकी स्थिति अधिक स्पष्ट करनेके लिए उसे निमाड़ देशमें स्थित बताकर ऊन नामसे अभिहित किया। ___साहित्यमें दोनों ही क्षेत्रोंको पावागिरि कहा गया है, किन्तु व्यवहारमें गुर्जर (गुजरात) प्रदेशके पावागिरिको पावागढ़ कहा जाता है क्योंकि यहां बहुत विशाल पहाड़ी गढ़ (किला ) है। और दूसरे क्षेत्रको पावागिरि ही कहा जाता है। क्षेत्रका इतिहास बात उन दिनोंकी है जब ऊनमें प्राचीन जैन मन्दिर जीर्ण-शीर्ण दशामें खड़े हुए थे। लोग किन्हीं कारणोंसे तीर्थक्षेत्रके रूप में इसे भूल चुके थे और यहां कोई यात्री नहीं आता था। यहाँके जीर्ण मन्दिर और मन्दिरोंके भग्नावशेष तत्कालीन होल्कर रियासतके पुरातत्त्व विभागके अधिकारमें थे। उन दिनों सेठ मोतीलालजी बड़वानी और सेठ हरसुखजी सुसारीने सागर निवासी श्री चेतनलाल पुजारीको ऊनके मन्दिरोंके प्रक्षाल, पूजन और सफाईके लिए नियुक्त किया। कुछ समय बाद आषाढ़ वदी ८ संवत् १९९१ को पुजारीको एक अद्भुत स्वप्न आया। स्वप्नमें उनसे कोई कह रहा था-'अमुक स्थानपर जिनेन्द्र भगवान्को मूर्तियां हैं, तुम उनको खोदो तो दर्शन होगा।'

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