Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 344
________________ ३११ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ 'आचार्य श्री प्रभाचन्दः प्रणमति नित्यं सं. १२५२ माघ सुदी ५ रवी चित्रकूटान्वये साधु बाल्हु भार्या शाल्ह तथा मन्दोदरी सुत गोल्ह रतन भाल्लू प्रणमति नित्यं ।" चित्रकूटान्वय बलात्कारगणकी एक शाखा रहा है। बलगाम्बेके एक कन्नड़ शिलालेखमें चित्रकूटान्वयका प्रयोग मिलता है। उसके अनुसार मालवके शान्तिनाथदेवसे सम्बन्धित बलात्कारगणके चित्रकूटान्वयके मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेवके शिष्य अनन्तकीर्तिदेवको उनके भक्त हेग्गड़े केशवदेव द्वारा दान दिया गया था। इन मूर्तियोंके साथ जो चरण मिले थे, वे लगभग १० इंच लम्बे हैं। उनपर कोई लेख अंकित नहीं हैं। धर्मशालाके पीछे जो मूर्ति निकली थी, वह भगवान् सम्भवनाथकी है। इसकी अवगाहना २ फुट ८ इंच है। इसके आसनपर संवत् १२१८ का लेख अंकित है जो दो पंक्तियोंमें है। कुछ मूर्तियाँ धर्मशालाके एक कमरेमें रख दी हैं। ये भूगर्भसे निकली थीं। क्षेत्रपर तीन मन्दिर प्राचीन हैं जिनमें सड़कके पास ग्राममें दो मन्दिर हैं। इन दोनों जैन मन्दिरोंका कलापक्ष अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत है। इन दोनों मन्दिरोंमें एक है चौबारा डेरा र दसरा है 'नहाल अवारका डेरा' या चौबारा डेरा नं.२। तीसरा मन्दिर ग्वालेश्वर मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है जो धर्मशालासे दो फलांग दूर पहाड़पर अवस्थित है। ये मन्दिर १२वीं शताब्दीके हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है चौबारा डेरा नं. १-यह मन्दिर नगरमें पूर्वाभिमुख अर्धभग्न दशामें विद्यमान है। यह सभी मन्दिरोंमें विशाल है। इस मन्दिरके मध्यमें एक सभा मण्डप बना हुआ है तथा पूर्व-दक्षिण और उत्तरकी ओर अर्धमण्डप बने हुए हैं। सभा-मण्डपके चारों आधार स्तम्भ कलाके उत्कृष्ट नमनोंमें से हैं। उत्तरी दीवारपर एक वस्तु ऐसी बनी हुई है जिसकी ओर सहज ही ध्यान आ र्षित हो जाता है और इससे प्राचीन देवनागरी लिपिपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है-यह है सर्पबन्ध । एक सर्पाकृति कुण्डलाकार बनी हुई है, जिसपर देवनागरी लिपिके वर्ण और धातुओंके परस्मैपद और आत्मनेपदके प्रत्यय बने हुए हैं। सम्भवतः प्राचीन काल में मन्दिरके इस भागका उपयोग एक पाठशालाके रूपमें किया जाता था। बालकोंको खेल-खिलोनोंके माध्यमसे उस कालमें शिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार सर्पबन्ध तत्कालीन शिक्षण पद्धतिकी ओर संकेत करता है। सर्पबन्धके निकट ही छोटे लेख भी अंकित हैं जिनमें मालवाके परमारवंशी राजा उदयादित्य ( लगभग सन् १०८० से ११०४ ) का उल्लेख है । इसी देवालयके द्वारपर वि. सं. १३३२ का एक शिलापट लगा हुआ था, जिसमें लेख था तथा एक धर्मचक्र बना हुआ था। उसके दोनों ओर सिंह और हाथी बने हुए थे। यह आजकल इन्दौर संग्रहालयमें सुरक्षित है। इस मन्दिरका शिखर और उसमें की गयी तक्षणकला नयनाभिराम है। इसमें कुछ प्राचीन प्रतिमाएं संग्रहीत हैं। भगवान् पाश्र्वनाथको ५ फुट उन्नत एक पद्मासन प्रतिमा है। इसकी फणावली खण्डित है। सभामण्डपमें एक ७ फुट ३ इंच, दूसरी ७ फुट ३ इंच, तीसरी ५ फुट उन्नत खण्डित प्रतिमाएँ हैं। इसके स्तम्भ कलात्मक ढंगसे अलंकृत हैं। उनमें यक्षी और सुर-सुन्दरियां विभिन्न मुद्राओंमें उत्कीर्ण हैं । इसकी छतका अलंकरण अनूठा है। चौबारा डेरा नं. २ (नहाल अवारका डेरा) यह मन्दिर उत्तरकी ओर गांवके छोरपर एक ऊंचे टोलेपर बना हुआ है। यह उत्तराभिमुख है। यह काफी जीर्ण हो चुका है। इसमें गर्भगृह, अन्तराल और मण्डप बने हुए हैं। चायें दिशाओंमें अर्धमण्डप हैं । गर्भगृहसे उनमें जानेके लिए १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ. २६५ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला ।

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