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मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ
३०७ ११७२ ) के पश्चात् सन् ११७३ में राजसिंहासनपर बैठा था। मालवराज बल्लालकी मृत्यु उससे पहले ही हो चुकी थी क्योंकि कुमारपालके सामन्त यशोधवलने युद्ध में उसे मारा था। इसलिए यह सम्भावना भी समाप्त हो जाती है कि प्रशस्तियों और लेखोंमें जिस मालवराज बल्लालका उल्लेख आया है, वह होयसलवंशी बल्लाल द्वितीय हो सकता है। . .. इन निष्कर्षों के प्रकाशमें हम यह स्वीकार कर सकते हैं कि ऊनमें मन्दिरोंका निर्माता मालवराज बल्लाल था। तब एक प्रश्न शेष रह जाता है कि अगर यह मालवराज बल्लाल परमार या होयसल नहीं था तो फिर यह किस वंशसे सम्बन्धित था ?
इस सम्बन्धमें खेरला गाँव (जिला बैतूल ) से प्राप्त शिलालेखसे कुछ समाधान मिल सकता है । यह शिलालेख शक संवत् १०७९ ( ई. सन् ११५७ ) का है। इस शिलालेखमें राजा नसिंह बल्लाल जैतपाल ऐसी राज परम्परा दी हई है। यह शिलालेख खण्डित है, अतः यह पूरा नहीं पढ़ा जा सका है। एक और भी लेख यहाँ प्राप्त हुआ है। यह लेख शक संवत् १०९४ (ई. सन् ११७२ ) का है। इस समय जैतपाल राजा राज्य कर रहा था। इस लेखका प्रारम्भ 'जिनानुसिद्धिः' पदसे हुआ है। इससे लगता है कि ये राजा जैन थे। किन्तु जैतपालको मराठीके आद्यकवि मुकुन्दराजने वैदिक धर्मका उपदेश देकर उसे वेदानुयायी बना लिया था। । ये राजा ऐलवंशी राजा श्रीपालके वंशज थे। खेरला ग्राम श्रीपाल राजाके आधीन था। राजा श्रीपालके साथ महमूद गजनवी ( सन् ९९९ से १०२७ ) के भानजे अब्दुल रहमानका युद्ध हुआ था। 'तवारीख-ए-अमजदिया' के अनुसार यह युद्ध ई. सन् १००१ में ऐलिचपुर और खेसा निकट हुआ था। अब्दुल रहमानका विवाह हो रहा था तभी लड़ाई छिड़ गयी। वह दूल्हेके वेषमें ही लड़ा। इस युद्ध में दोनों मारे गये।
इस ऐतिहासिक तथ्यसे यह सिद्ध हो जाता है कि बल्लाल ऐलवंशी था, इसके पूर्वजोंका शासन ऐलिचपुरमें था। कल्याणके चालुक्य जगदेकमल्ल और होयसल नरसिंह प्रथमने परमार राजा जयवर्मनके विरुद्ध सन् ११३८ के लगभग आक्रमण करके उसे राज्यच्युत कर दिया और अपने विश्वस्त राजा बल्लालको ऐलिचपुरसे बुलाकर मालवाका राज्य सौंप दिया। सन् ११४३ में चौलुक्य कुमारपालकी आज्ञासे चन्द्रावती नरेश विक्रमसिंहके भतीजे परमारवंशी यशोधवलने बल्लालपर आक्रमण करके युद्ध में उसका वध कर दिया और उसका सिर कुमारपालके महलके द्वारपर टांग दिया। इस प्रकार बल्लाल मालवापर प्रायः ५-७ साल तक ही शासन कर पाया। किन्तु 'पज्जुण्णचरियं' में बल्लालको सपादलक्षके अधिपति अर्णोराजके लिए कालस्वरूप बताया है। इससे प्रतीत होता है कि बल्लाल अत्यन्त वीर और साहसी था और उसने अल्पकालमें अपने प्रभावका विस्तार कर लिया था। ..
हमें यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि बल्लाल प्रतापी नरेश था। साथ ही उसका व्यक्तित्व विवादास्पद भी था। विभिन्न शिलालेखों और ग्रन्थोंमें उसके सम्बन्धमें ऐकमत्य नहीं मिलता। 'पज्जुण्णचरियं' में उसे रणधोरीका पुत्र बताया है तो खेरलाके शिलालेखमें नृसिंहका । सोमप्रभ आचार्यने 'कुमारपालप्रबोध' में कुमारपाल नरेशके सेनाध्यक्ष काकभटको बल्लालका वध करनेवाला बताया है तो लूणवसति, अचलेश्वर और अजारीगांवके शिलालेखोंमें बल्लालके संहारकर्ताका नाम यशोधवल दिया है । इस प्रकारके मतभेदोंके कारण और कहीं भी उसके वंशका उल्लेख न होनेके कारण इतिहासज्ञोंमें भी बल्लालको लेकर भारी मतभेद पाये जाते हैं। ऐसी स्थितिमें किसी भी शिलालेख अथवा प्राचीन ग्रन्थकी विश्वसनीयतामें सन्देह न करते हुए भी उनमें सामंजस्य स्थापित करनेका हमें प्रयत्न करना है। तभी सत्य पकड़में आ सकता है।