Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 326
________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २९३ विराजमान है । यह संवत् १९३९ में प्रतिष्ठित हुई है । इसके बगल में चन्द्रप्रभ भगवान्की २ फुट - १ इंच ऊँची पद्मासन मुद्रामें श्वेत वर्णं प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६७ में हुई है। इस मन्दिरका निर्माण सेठानी बड़ी बाई धर्मपत्नी सेठ नानूराम ऋषभदास बड़वानीने कराया था । आगे एक द्वार मिलता है । यह विश्राम स्थान भी । इसके बगल में जिनालय है । मन्दिरमें घुसते ही बायीं ओर देशी पाषाणकी आदिनाथ स्वामीकी पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना ३ फुट ८ इंच है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १३८० है । इसके बगलके गर्भगृहमें भगवान् नेमिनाथकी कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । यह ३ फुट ३ इंच ऊंची है और संवत् १९६७ में इसकी प्रतिष्ठा हुई है । इसकी बायीं ओर भगवान् पार्श्वनाथकी कृष्ण वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है जो २ फुट ५ इंच ऊंचो है और संवत् १९३९ की प्रतिष्ठित है। दायीं ओर भगवान् पार्श्वनाथकी देशी पाषाणकी ३ फुट ५ इंच समुन्नत खड्गासन मूर्ति है । वेदीपर प्राचीन चरण हैं । मन्दिरके निर्माता सेठ मीठाजी चन्दूलाल मोतीलाल बड़वानी हैं । दूसरे गर्भालय में भगवान् शान्तिनाथकी देशी पाषाणकी खड्गासन प्रतिमा विराजमान है । अवगाहना १० फुट है और प्रतिष्ठा संवत् १३८० है । इसे नौगजाजी कहा जाता है । भगवान्‌के सिरके पृष्ठभाग में भामण्डल अलंकृत है तथा सिरके ऊपर छत्रत्रयी है । भगवान्के चरणोंके दोनों ओर सौधर्म और ऐशान इन्द्र चमर हाथमें लिये सेवारत हैं। बायीं ओर कुन्थुनाथ भगवान्की ४ फुट ७ इंच उन्नत प्रतिमा है और बायीं ओर ५ फुट उन्नत अरनाथ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के परिकरमें भामण्डल और चमरवाहक हैं तथा प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी हाथ जोड़े हुए भगवान्की सेवा में खड़े हैं । शान्तिनाथ की चरण-चौकीपर उसका प्रतिष्ठा काल संवत् १३८० अंकित है । इस मन्दिरका निर्माण सेठ रोडजी सूरजमलजी सुसारी तथा श्री हुक्मीचन्द चुन्नीलाल डेहरीने कराया था । इन मन्दिरोंसे बावनगजाजी तक जानेके लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। मध्यमें पार्श्वनाथ मन्दिर है । पार्श्वनाथ भगवान्की भूरे देशी पाषाणकी ४ फुट ७ इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । चरण- चोकीपर अंकित मूर्ति लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् १२४२ में की गयी । प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी भगवान् के दोनों ओर चरणों में हाथ जोड़े हुए बैठे हैं। इस मन्दिरका निर्माण सेठ हीराचन्द विजयलाल रतावरने कराया । 1 इस मन्दिरसे कुछ ही दूरीपर देवाधिदेव ऋषभदेव स्वामीकी जगद्विख्यात प्रतिमा उच्च पर्वत शिखरपर खड़ी संसारके सन्त्रस्त प्राणियोंके ऊपर अपनी अनन्त करुणाकी वर्षा कर रही है । यही प्रतिमा बावनगजाजीके नामसे जगविश्रुत है । उनके चरणोंमें पहुँचकर उनकी महानताके समक्ष अपनी हीनता और अकिंचनताका बोध होता है । जाते ही उनके चरणोंमें मस्तक स्वतः झुक जाता । मन पावनतासे स्निग्व हो उठता है । जगत्की नानाविध आकुलताओंसे सन्तप्त मानसपर मानो शीतल फुहारें पड़ने लगती हैं । हृदय भक्तिसे तरंगित हो उठता है । जब चरणोंसे मस्तक हटाकर ऊपरकी ओर दृष्टि उठाते हैं तो महाप्रभुके मुखपर अनिंद्य मुसकान बिखरी हुई दिखाई पड़ती है । लगता है, प्रभु हमपर करुणाकी वर्षा करके अभय दे रहे हैं । उनकी पावन छाया में पहुँचकर शान्तिका अनुभव होने लगता है । भगवान् ऋषभदेवकी यह प्रतिमा खड्गासन मुद्रामें है । यह पहाड़ में से ही उकेरी गयी है । यह गोम्मटेशके समान निराधार नहीं है बल्कि उसे पहाड़का आधार प्राप्त है । यह अपनी उच्चतामें अद्वितीय है । प्रतिमाकी छातीपर श्रीवत्स लांछन है । प्रतिमाके हाथ जाँघोंसे मिले हुए

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