Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 298
________________ मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ २६५ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भगवान् महावीरके कालमें चण्डप्रद्योत उज्जयिनीका शासक था। एक बार एक चित्रकार कौशाम्बी नरेश शतानीककी पत्नी मृगावतीका चित्र बनाकर लाया। प्रद्योत उस चित्रको देखते ही मृगावती पर मोहित हो गया। उसने शतानीकसे मृगावतीकी याचना की। इसपर दोनोंमें युद्ध हो गया। युद्धके मध्य में किसी रोगसे शतानीकको मृत्यु हो गयी। बादमें मृगावती भगवान् महावीरके पास अजिका बन गयी और प्रद्योतने श्रावकके व्रत लिये। जिस दिन भगवान् महावीरका निर्वाण हुआ उसी दिन उज्जयिनीमें पालकका राज्याभिषेक हुआ। उज्जयिनी मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तकी उपराजधानी थी। वे वर्षमें कुछ दिन यहां ठहरते थे। पाटलिपुत्र दक्षिण भारतसे बहुत दूर पड़ता था, वहाँ रहकर विशाल साम्राज्यका नियन्त्रण भली प्रकार नहीं हो सकता था। इसलिए उन्होंने उज्जयिनीको अपनी उपराजधानी बनाया था। यहाँ उनके कुमारामात्य उपरिकके रूपमें रहते थे और वे स्वयं भी यहाँ कभी-कभी जाते रहते थे। जब अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु उज्जयिनी पधारे थे, उस समय सम्राट चन्द्रगुप्त यहीं पर थे और लगभग ५० वर्षको अवस्थामें ही उनसे दीक्षा लेकर दक्षिणकी ओर चले गये थे। __ जब चन्द्रगुप्त सम्राट् थे, उस समय उज्जयिनीमें बिन्दुसार उपरिक थे। जब बिन्दुसार सम्राट् बन गये, उस समय अशोक यहाँके उपरिक बनाये गये। उनके पुत्र महेन्द्रका जन्म यहींपर हआ था। अशोकके राज्यासीन होनेपर कुणाल यहाँके उपरिक बने। यहींपर उनकी आंखें तप्त लोह शलाकाओं द्वारा महारानी तिष्यरक्षिताके कुटिल षड्यन्त्रके फलस्वरूप फोड़ी गयीं। यहींपर सम्प्रतिका जन्म हुआ। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार यहाँ इस कालमें 'चैत्य यात्रा उत्सव' मनानेकी परम्परा थी। यहां एक जैन मन्दिर था, जिसमें जीवन्त स्वामीकी एक प्रतिमा थी। चैत्र मासमें यहाँ एक विशाल उत्सव होता था। उत्सवके अन्तिम दिन रथयात्रा होती थी। इसमें सम्मिलित होनेके लिए दूर-दूरसे जैनाचार्य और जैनसंघ आते थे। सम्प्रतिके कालमें इस उत्सवमें भाग लेनेके लिए पाटलिपुत्रसे आर्य सुहस्ति और आयं महागिरि आये थे। सम्राट् सम्प्रतिने राजभवनके सामने रथके आनेपर जिनेन्द्र-प्रतिमाकी पूजा अष्ट द्रव्यसे की थी। उस रथको श्रावक लोग खींचते थे और रथके चारों ओर श्राविकाएं मंगलगान और जिनेन्द्र-स्तुति करती चलती थीं। गर्दभिल्ल वंशके राजाओंकी राजधानी उज्जयिनी ही थी। 'कालकाचार्य-कथा' के अनुसार कालकाचार्य ( श्वेताम्बर ) की बहन साध्वी सरस्वतीके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर गर्दभिल्ल उन्हें बलात् अपहरण करके अपने महलोंमें ले गया। कालकाचार्य द्वारा समझानेपर भी जब वह अत्याचारी साध्वीको मुक्त करनेको सहमत नहीं हुआ तो कालकाचार्यने उससे भयंकर प्रतिशोध लिया। उन्होंने शकों द्वारा गर्दभिल्लको उखाड़ फेंका, साध्वीको मुक्त कराया। उज्जयिनीमें शक-राज्य स्थापित हुआ। इन्हीं कालकाचार्यने पyषण पर्व भाद्रपद शुक्ला ४ से प्रचलित किया । गर्दभिल्लके पुत्र विक्रमादित्यने शकोंको हराकर उज्जयिनीको पुनः प्राप्त किया। इसके उपलक्ष्यमें विक्रम संवत् उसने प्रचलित किया। विक्रम संवत् १३५ में शकोंने विक्रमादित्यके वंशजोंको पराजित करके मालवापर पुनः अधिकार कर लिया। उन्होंने भी इस विजयके उपलक्ष्यमें शक संवत्का प्रचलन किया। __चन्द्रगुप्त द्वितीयको विक्रमादित्य तथा उन्हींके द्वारा विक्रम संवत्के समान शक संवत्के १. परिशिष्ट पर्व ११।२४ ३-३४

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