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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जिने मूर्तियां बनवायों और एक विशाल जिनालय बनवाकर उसमें इन्हें प्रतिष्ठित किया। वहाँके नरेश चौहानवंशी प्रतापरुद्रने उनका बड़ा सम्मान किया था। सम्भवतः व्यापारिक कार्यसे वे ग्वालियर भी आते-जाते थे। वहाँ संघवो कमलसिंहके माध्यमसे वे कविवर रइधूके सम्पर्कमें आये। धीरे-धीरे यह सम्पर्क प्रगाढ़तर होता गया। कविवरके आदेश या उपदेशसे उन्होंने ग्वालियर दुर्गमें भी मूर्ति-प्रतिष्ठा करायो । 'पुण्णासव कहाकोस'में कविवरने इस बातका उल्लेख इस प्रकार किया है
भो रइधू बुह वढियपमोय ।..... संसिद्ध जाइ तुहु परममित्तु । तउ वयणामियपाणेण तित्तु ।। पइ किय पइट्ठमहु सुहमणेण । जाजयपूरिय धणकंचणेण ।।
पुणु तुव उवएसे जिणविहारु । काराविउ मइ दुरियावहारु ॥१।६।८-११ अर्थात् हे बुद्धिमान रइधू ! मेरा आपके प्रति अत्यन्त प्रमोद है। तुम मेरे परममित्र हो । आप जो कहिये, मैं धन-कंचनसे आपको सन्तुष्ट करूँगा। आपने बड़े हर्षसे जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठा की है । तुम्हारे उपदेशसे मैंने जिन-बिहार ( मन्दिर ) का निर्माण कराया है। तुमने मेरे पापोंका क्षय कराया है।
संघाधिप कुशराज-ये ग्वालियरके गोलाराडान्वयी सेउ साहूके पुत्र थे। इनकी प्रेरणासे कविवर रइधूने 'सावयचरिउ' ग्रन्थकी रचना की थी। इन्होंने महाराज कीर्तिसिंहके शासन-कालमें विशाल जिन-मन्दिरका निर्माण कराया।
__कुमुदचन्द्र-ये गोलालारे जातीय थे। इन्होंने संवत् १४५८ में बाबड़ीकी ओर भट्टारक सिंहकीर्ति द्वारा पार्श्वनाथ-मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी थी।
___ साहू पद्मसिंह-ये जैसवाल वंशके उल्हा साहूके ज्येष्ठ पुत्र थे। इन्होंने २४ जिनालयोंका निर्माण कराया था तथा एक लाख ग्रन्थ लिखवाकर साधुओं, श्रावकों एवं मन्दिरोंको भेंट किया था।
___ मंत्री कुशराज-ये जैसवाल वंशके भूषण थे और महाराज वीरमदेवके महामन्त्री थे। इनके पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम लोणा था। इनके पांच भ्राता थे। इन्होंने भट्टारक विजयकीर्तिके उपदेशसे चन्द्रप्रभ भगवान्का मन्दिर बनवाया था। ..
संघपति सहदेव-कविवर रइधूने 'सम्मइ जिणचरिउ' में साहू सहजपालके पुत्र संघपति सहदेवके सम्बन्धमें लिखा है कि उन्होंने ग्वालियर दुर्गमें मूर्ति-प्रतिष्ठा करायी। तथा गिरनारकी यात्राका संघ चलाया और उसका सम्पूर्ण व्ययभार उठाया। १. जिणबिंब अणेय विसुद्धवोह । णिम्मविवि दुग्गइ पहणिरोह ॥ ___सुपइट्ठ काराविउ सुहमणेण । तित्थेसगोत्तु बंधियउ जेण ॥ पुण्णासव. १।५।८-९
बहुबिह धाउफलिहविटुममउ । कारावेप्पिणु अगणिय पडिमउ ॥ --- पतिठ्ठाविवि सुहु आवज्जिह । सिरितित्थेसरगोत्तु समज्जिउ ।।पुण्णासव. १३।२।३-४ २. विज्जुल चंचलु लच्छी सहाउ । आलोइ विहुउ जिणधम्मभाऊ ॥
जिणगंथु लिहावउ लक्खु एकु। सावय लक्खा हारीति रिक्खु । मुणि भोजन भुंजाविय सहासु । चउबीस जिणालउ किउ सुभासु ।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति, सं. पृ. १४४