Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 3
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 279
________________ ३४६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्य क्षेत्रका इतिहास इस क्षेत्रका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है । इसके सम्बन्धमें भी एक किंवदन्ती अवश्य प्रचलित है। प्राचीन कालमें शाजापुर-उज्जैन मार्गपर मक्सी गांवमें एक ब्राह्मण राहगीरोंको पानी पिलाया करता था। एक रातमें उसे स्वप्नमें कोई दिव्य पुरुष कह रहा था-जहाँ तेरी प्याऊ है, उसके नीचे जमीनमें भगवान हैं। उन्हें तू निकाल। दूसरे दिन उसने जमीन खोदी तो पार्श्वनाथकी मूर्ति निकली। ब्राह्मणको अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि भगवान्ने प्रकट होकर उसे दर्शन दिये हैं। उसने अपनी झोपड़ीमें मूर्ति विराजमान कर ली। वह भैरव मानकर इसकी पूजा करता था। इसके ऊपर तेल-सिन्दूर चढ़ाता। धीरे-धीरे लोगोंको इसके बारेमें पता चलता गया। लोग यहां आते, मनौती मनाते। .. __एक बार एक दिगम्बर जैन श्रेष्ठीको किसी अपराधमें कैद करके उज्जैन ले जाया गया। श्रेष्ठीका पुत्र अपने पितासे मिलने उज्जैन जा रहा था। मार्गमें मक्सीमें वह उक्त ब्राह्मणकी प्याऊपर पानी पीने रुका। बातों-बातोंमें उसे भैरवके चमत्कारोंका पता चला। उसने भैरवजीके दर्शन किये और मनौती मनायी, "अगर मेरे पिता कैदसे मुक्त हो जायेंगे तो मैं तुम्हारे लिए एक मन्दिर बनवाऊँगा।" मनौती मनाकर वह चल दिया। उस रातको उज्जैन नरेशको स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्नमें राजाको कोई आदेश दे रहा था-"तुम शाजापुरके श्रेष्ठीको अविलम्ब मुक्त कर दो।" राजाने प्रातःकाल होते हो श्रेष्ठीको मुक्त कर दिया। श्रेष्ठीका पुत्र उज्जैन पहुँचकर अपने पितासे मिला। वहाँसे दोनों पिता-पुत्र घर पहुंचे। रातको श्रेष्ठी-पुत्रको स्वप्नमें एक दिगम्बर मुनिके दर्शन हुए। वे श्रेष्ठो-पुत्रसे कह रहे थे-"तुम मक्सीमें जिसे भैरव समझ रहे हो, वे तो भगवान् पार्श्वनाथ हैं।" श्रेष्ठो-पुत्र प्रातः होते ही अपने इष्ट-मित्रोंके साथ मक्सी पहुंचा। वहां देखा कि प्रतिमाका तेल-सिन्दूर अपने आप साफ हो चुका है। अब भगवान् पाश्र्वनाथकी मनोज्ञ प्रतिमा वहां विराजमान थी। सबने भक्तिभावसे भगवान्के दर्शन किये और उनकी पूजा की। श्रेष्ठी-पुत्रने मक्सीमें एक विशाल मन्दिर निर्माण कराया। उसमें पार्श्वनाथ प्रतिमा विराजमान कराकर अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण किया। - इस किंवदन्तीमें घटनामूलक परिचय तो है किन्तु मन्दिर निर्माणके सम्बन्धमें विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती। अन्य भी कोई स्रोत नहीं है, जिससे मन्दिर निर्माताका नाम और परिचय ज्ञात हो सके। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भगवान पार्श्वनाथकी यह मनोज प्रतिमा दिगम्बर परम्पराकी है। इस मन्दिरका निर्माण किसी अज्ञात दिगम्बर धर्मानुयायीने कराया है। प्रारम्भसे इस मन्दिरका स्वामित्व, व्यवस्था और अधिकार दिगम्बर समाजके अधीन रहा है । यहाँके मन्दिर, धर्मशाला, तालाब, बगीचा आदिका निर्माण दिगम्बर समाजने कराया है। पहले यहाँ दिगम्बर समाजके लोगोंकी संख्या बहुत थी। किन्तु आजीविका और व्यापारकी दृष्टिसे अधिकांश दिगम्बर जैन अन्यत्र चले गये । अवसर पाकर यहाँके ब्राह्मण पुजारियोंने मन्दिरके पीछे देहरियोंमें महादेव, हनुमान, विष्णु एवं नवग्रहकी मूर्तियां रख दीं। मेसलमानोंने मन्दिरके पीछे बगीचेके पास अपनी कने बना दीं। अव्यवस्थाके इसी कालमें श्वेताम्बरोंने अपनी विधिसे पूजा करना और क्षेत्रको सम्पत्तिपर अधिकार जमानेका प्रयत्ल करना प्रारम्भ कर दिया। .. इस अतिशय क्षेत्रका उल्लेख भट्टारक सुमतिसागर (सोलहवीं शताब्दीके मध्यमें), भट्टारक ज्ञानसागर (सोलहवीं शताब्दीके अन्तमें), भट्टारक जयसागर (सत्रहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध), भट्टारक ब्रह्महर्ष (सन् १८४३-१८६६ ) ने अपनी रचनाओं में किया है। इनसे पूर्ववर्ती मदनकीर्ति

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