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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ उनका राँगा चाँदी हुआ हो। आधुनिक समीक्षकोंका विचार है कि पाड़ाशाह राँगाके बहुत बड़े व्यापारी थे। उनके पास रांगाका बहुत बड़ा स्टाक था। परिस्थितिवश राँगा महंगा हो गया। इससे सेठ पाड़ाशाहकी चांदी हो गयी और उस मुनाफेके धनसे उन्होंने खलारा, बल्हारपुर, सुखाहा, भामौन, सुमेका पहाड़, शेषई, राई, पनवाड़ा, आमेट, दूवकुण्ड, थूवीन, आरा ( अगरा ), पचराई, गोलाकोट, सोनागिर, अहार, बजरंगढ़ आदि अनेक स्थानोंपर जैन मन्दिर बनवाये और उनकी धर्मपत्नीने-जो वैष्णव धर्मकी अनुयायी थी-वैष्णव मन्दिर बनवाये।
वास्तवमें इस क्षेत्रका अतिशय यह नहीं है कि यहां किसी व्यक्तिविशेषका रांगा चांदी हो गया, वरन् क्षेत्रका अतिशय यह है कि यहाँ जो व्यक्ति भक्तिवश दर्शनार्थ आता है, उसके मानसपर यहाँको एकान्त शान्ति, पवित्र वातावरण और भगवान् जिनेन्द्रदेवको वीतराग मूर्तियोंका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह कुछ कालके लिए सांसारिक चिन्ताओंसे मुक्त होकर आत्मिक शान्ति और आह्लादका अनुभव करने लगता है। इस शान्ति और आह्लादको पानेके लिए यहाँ देवगण भी आते हैं और यहां आकर वे भाव-भक्तिसे वीतराग प्रभुके दर्शन, वन्दन और पूजन करते हैं।
किन्तु साधारण जनोंके मनमें चमत्कारों और अतिशयोंके माध्यमसे भगवान्की भक्तिका अंकुरारोपण होता है। वे ऐसे चमत्कारों और अतिशयोंसे ही अतिशय प्रभावित होते हैं। इसलिए उनकी सन्तुष्टिके लिए यहाँ ऐसी कुछ घटनाओंका उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो किंवदन्तियोंके रूपमें इस प्रदेशमें बहुप्रचलित हैं
-एक बार आततायियोंने इस क्षेत्रपर आक्रमण किया। वे जब-मूर्तिभंजन करनेके लिए आगे बढ़े तो उन्हें मूर्ति ही दिखाई नहीं दी। तब वे लोग मन्दिरको ही क्षति पहुँचाकर वापस चले गये।
-मन्दिर नं. १५ में भगवान् आदिनाथकी ३० फुट ऊंची प्रतिमाको खड़ा करना था। सभी सम्भव प्रयत्न किये गये किन्तु सफलता प्राप्त नहीं हुई। तब प्रतिष्ठाकारक आये और मूर्तिके समक्ष बैठ गये। उन्होंने भगवान्की स्तुति करते हुए कहा-"प्रभो ! क्या इसी प्रकार उपहास और लोकनिन्दा होती रहेगी!" यह कहकर भक्तिकी उमंगसे उन्होंने 'भगवान् ऋषभदेवकी जय' बोलकर मूर्तिको उठानेका प्रयत्न किया और सबने आश्चर्यके साथ देखा कि मूर्ति सुगमतासे उठ गयी है।
-क्षेत्रके चारों ओर भयानक जंगल है। पहले इसमें सिंहादि क्रूर जानवर भी रहते थे। क्षेत्रके आसपास और क्षेत्रपर पशु चरते-फिरते रहते थे, किन्तु कभी किसी पशुपर कोई बाधा आयी हो, ऐसा सुननेमें नहीं आया।
-भगवान् आदिनाथ-मन्दिर ( क्रम संख्या १५) में फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिककी अष्टाह्निका तथा पyषण-पर्वमें अर्धरात्रिमें देवोंके पूजनकी मधुर ध्वनि और वाद्य-यन्त्रोंके मधुर स्वर सुनाई पड़ते हैं।
-अनेक ग्रामीण लोग पुत्रकी कामना लेकर या अपने पशुओंके खो जानेपर यहां आकर आदिनाथ भगवान्के आगे मनौती मानते हैं और मनोकामना पूर्ण होनेपर भगवान्के चरणोंमें श्रीफल भेंट करते रहे हैं। क्षेत्रका प्राकृतिक सौन्दर्य
वेत्रवती ( वेतवा ) की एक सहायक नदी उर्वशी ( उर ) से एक कि. मी. दूर एक सपाट - चट्टानपर मन्दिर है । मन्दिरके उत्तरकी ओर एक छोटी-सी नदी लीलावती (लीला) है । इस प्रकार