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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ अनेक जैन और जैनेतर व्यक्ति मनमें कामनाएँ लेकर यहां आते हैं। शान्तिनाथकी भक्तिसे उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। कुछ लोग कहते हैं-भगवान्ने उनकी सुन ली। दूसरे कहते हैं-भगवान्के सेवक देव लोग भक्तोंकी कामनाएँ पूर्ण करके अपने आराध्य प्रभुका माहात्म्य-विस्तार करते हैं। दोनों ही बातोंमें सत्यांश है। भगवान् शान्तिनाथकी मूर्तिको देखकर जिनकी दृष्टि भगवान्की वीतरागता और शुद्ध परिणतिसे आत्माके शुद्ध स्वरूपकी ओर जाती है, उन्हें आत्म-शुद्धि प्राप्त होती है। जिनकी परिणति तीर्थंकर भगवान्की निर्मल भक्ति द्वारा शुभोपयोगमय हो जाती है, उन्हें शुभोदयके कारण अपनी सांसारिक कामनाओंकी पूर्ति होती है। कितना बड़ा चमत्कार है यह भगवान्का ! यहाँ आध्यात्मिक शान्ति भी मिलती है और लौकिक इच्छाओंकी भी पूर्ति होती है। वस्तुतः भगवान् या देव तो निमित्त मात्र हैं। फल अपनी भावनाओंसे मिलता है। अतिशय भगवान्का कहलाता है क्योंकि भक्तोंकी भावनामें जो तात्कालिक शुद्धता अथवा शुभरागता आयो, उसमें भगवान् उस समय निमित्त कारण हैं।
इस दृष्टिसे इस क्षेत्रपर कब कितने अतिशय हुए, उनका लेखा-जोखा रखना क्या सम्भव है ? क्षेत्रकी एकान्त शान्ति, वीतराग भगवान्का सान्निध्य और भक्तिपूर्ण वातावरण इन सबने मिलकर भक्तोंके मनमें अतिशयोंकी आस्था उत्पन्न कर दी है, जिसके कारण यहाँ आते ही मनकी भावनामें अद्भुत परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है और सोचा हुआ कार्य पूर्ण हो जाता है। इतिहास
___ इस नगरने इतिहासके अनेक उत्थान-पतन और राजनीतिकी अनेक उथल-पुथल देखी हैं । इतिहासमें इस नगरके कई नाम प्राप्त होते हैं-जैसे मूसागढ़, झरखोन, सारखोन, बजरंगढ़, जैनागर, जयनगर। इन नामोंका अपना-अपना एक इतिहास भी है। इतिहास-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि लगभग १००० वर्ष पूर्व इस नगरका नाम मूसागढ़ था। उस समय किले में छोटी-सी बस्ती थी। किलेपर वैरगढ़ियोंका शासन था। एक बार झिरवार रघुवंशियोंने किलेपर आक्रमण कर दिया। युद्धमें वैरगढ़िये हार गये। किलेपर झिरवारोंका आधिपत्य हो गया। नगरका नाम बदलकर झरखोन हुआ और वह फिर बदलते-बदलते सारखोन हो गया। कुछ समय पश्चात् पुनः वैरगढ़ियोंने नगरपर अधिकार कर लिया। पर नगरका नाम सारखोन ही चलता रहा।
सारखोनके निकटवर्ती राघोगढ और उसके आसपासके प्रदेशपर उस समय चौहानवंशी खीची राजपूतोंका राज्य था। ये चौहान खिलचीपुरके निवासी होनेके कारण खीची कहलाते थे। इस वंशके राजा धीरजसिंह उस समय शासन कर रहे थे। धीरजसिंह महत्त्वाकांक्षी शासक थे। उस समय इस प्रदेशमें मुगल सल्तनत विच्छृखल हो रही थी। सारा मालव प्रदेश छोटे-छोटे राज्योंमें बँट गया था। ऐसी अव्यवस्थाके समय धीरजसिंहने सारखोन पर आक्रमण कर दिया और वैरगढ़ियोंको पराजित कर दिया। किन्तु खीची चौहानोंका यह विजयोल्लास शीघ्र ही पराजयके विषादमें डूब गया। जब गढ़ीमें विजयोल्लास मनाया जा रहा था और महाराज धीरजसिंह इसमें सम्मिलित होने जा रहे थे, अकस्मात् एक वैरगढ़ियेने महाराजके ऊपर आक्रमण कर दिया और उनकी हत्या कर दी। इसके पश्चात् वैरगढ़ियोंने पुनः गढ़ीपर अधिकार कर लिया। खीची चौहान खीचीवाड़ा (राघोगढ़ और उसका निकटवर्ती प्रदेश) पर शासन करते रहे । महाराज धीरजसिंहकी हत्याकी घटना १८वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें घटित हुई थी। किन्तु इसी शताब्दीके उत्तरार्धमें धीरजसिंहके प्रपौत्र बलवन्तसिंहने इस नगरपर आक्रमण करके वैरगढ़ियोंको मार भगाया और इस प्रकार अपने प्रपितामहकी हत्याका प्रतिशोध लिया। उसने नगरका नाम-परिवर्तन करके बजरंगढ़ कर