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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
परिवार रह गये हैं । क्षेत्रपर आनेवाले यात्री भी प्रायः गुना शहरमें ही ठहर जाते हैं। इन सब कारणोंसे मन्दिर और धर्मशाला में पहले जैसी रोनक नहीं रह गयी । धर्मशाला में यात्रियोंके लिए पूर्ण सुविधाएँ हैं। इसमें समय- समयपर आदर्श विवाह और गोट होती रहती है ।
इस नगरका तीसरा जिनालय नगरके बाह्य अंचलमें चोपेट नदीके किनारेपर अवस्थित है । इस मन्दिरको 'रकावाला मन्दिर' कहा जाता है। इसका निर्माण संवत् १९८० में सेठ हरिचन्द्रने कराया था। सुरक्षा आदिकी दृष्टिसे इस मन्दिर की सभी मूर्तियाँ क्षेत्र - मन्दिर में ले जाकर प्रतिष्ठित कर दी गयी हैं। अब इस जिनालयका उपयोग संग्रहालयके रूपमें किया जा रहा है । यहाँ आसपाससे उपलब्ध खण्डित मूर्तियाँ सुरक्षित रखी जा रही हैं ।
इस मन्दिर निर्माण सम्बन्धमें बड़ी अद्भुत और रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। इस मन्दिर के निर्माता सेठ हरिचन्द्र बड़े सम्मान्य और सम्पन्न व्यक्ति थे । उस समय इस नगरपर खीची राजवंशके नरेश जयसिंहका शासन था। एक बार सेठजीने राजाको अपने घरपर आमन्त्रित किया । राजाके प्रति अपनी निष्ठा और सम्मान प्रकट करनेके लिए सेठजीने राजमहलसे लेकर अपने निवास तक चाँदीके पत्रोंका बिछावा बिछवा दिया तथा राजाको स्वर्ण पात्रोंमें भोजन कराया । इस सम्मान से सेठजीपर राजाको मुग्ध होते देख दरबारियोंने ईर्ष्यावश राजाके कान भरे कि 'सेठजी ने आपको नीचा दिखाने और दुनियामें अपना वैभव प्रदर्शित करनेका प्रयत्न किया है। इस तरह आपकी अवज्ञा करके सेठने घोर अपराध किया है। इसका प्रतिकार होना आवश्यक है, अन्यथा राज्य में राज-मर्यादा स्थिर नहीं रह सकेगी ।'
राजा उन मत्सरी व्यक्तियोंकी बातोंमें आ गया। उसने राजापमानके अभियोगमें सेठजीको बन्दी बनाकर कारागारमें डाल दिया तथा उनके समस्त स्वर्ण और रजत पात्रों एवं अन्य सामग्रीको जब्त करके राजकोष में जमा करा दिया। समस्त जनताको राजाके इस व्यवहारको देखकर बड़ा आश्चर्य एवं क्षोभ हुआ। उधर सेठजीने प्रतिज्ञा की कि वे बिना देव दर्शन किये भोजन नहीं करेंगे तथा कारावाससे मुक्त होते ही जिनालय बनवायेंगे ।
दूसरे दिन ऐसा चमत्कार हुआ कि राजाने सेठजीको कारावाससे स्वयं ही मुक्त कर दिया, किन्तु एक शर्त के साथ कि बन्दी अपने घरपर केवल पीतलकी धातुका ही उपयोग कर सकेगा । सेठजी कारावाससे मुक्त होकर अपनी प्रतिज्ञापूर्ति में जुट गये और पीतल बेच - बेचकर इस जिनालय - का निर्माण किया ।
अतिशय
इस क्षेत्रपर होनेवाले नाना प्रकारके अतिशय जनता में किंवदन्तियोंके रूपमें प्रचलित हैं । दशलक्षण पर्वके दिनों में भगवान् शान्तिनाथका पूजन करने देवगण यहाँ आते हैं । उनके भक्तिमय संगीत और वाद्योंकी मधुर ध्वनि निकटवर्ती अनेक निवासियोंने मध्य रात्रिमें सुनी है ।
सं. १९४३ में जबकि ग्राममें पालकी निकल रही थी, सुनसान मन्दिर जानकर कुछ आततायियोंने मन्दिर में प्रवेश कर गर्भगृहस्थित मूर्तियोंको क्षति पहुँचानेका दुस्साहस किया तो तत्काल अग्निवर्षा होने लगी और आततायी प्राण बचाकर भाग गये ।
एक बार संवत् १९६१-६२ की बात है। क्षेत्रका बागवान भागचन्द मन्दिरकी सफाई तथा अपने कार्यसे थककर मन्दिरके अन्दर ही लेट गया । लेटते ही उसे निद्रा आ गयी। रात्रिमें देवोंने उसे मन्दिरके अन्दरसे उठाकर बाहर लाकर सुला दिया।