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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ सामाजिक परिस्थितियां भी दी हैं; अपने समकालीन राजाओं, सेठों, कवियों और भट्टारकोंके भी परिचय दिये हैं।
महाराज कीर्तिसिंहके शासनकालमें संवत् १५२१ में जैसवालकुलभूषण उल्हा साहुके ज्येष्ठ पुत्र पद्मसिंहने २४ जिनालयोंका निर्माण कराया और उनकी प्रतिष्ठा करायी। संवत् १५३१ में इन्होंने महाकवि पुष्पदन्तके आदिपुराणको प्रतिलिपि करायी। इस ग्रन्थके दानकर्ताकी प्रशस्तिमें लिखा है कि उन्होने ग्रन्थोंको एक लाख प्रतिलिपियाँ कराकर विभिन्न मन्दिरोंमें भेजी।
भ. गुणभद्रने यहाँके श्रावकोंकी प्रेरणासे अनेक कथाओंका निर्माण कराया था।
संवत् १५२१ में यहाँके एक लुहाड़िया गोत्रीय खण्डेलवाल जैनने 'पउमचरिउ'की प्रतिलिपि करायी।
महाराज डूंगरसिंहका शासन संवत् १४८१ से १५१० तक रहा तथा महाराज कीर्तिसिंहका राज्यकाल संवत् १५१० से १५३६ तक है। वस्तुतः ग्वालियरमें जैनधर्मका यह स्वर्ण-काल माना जाता है।
इनके पश्चात् महाराज मानसिंहके राज्यकालमें कुछ सांस्कृतिक कार्य होनेके उल्लेख प्राप्त होते हैं । संवत् १५५८ में गोपाचल दुर्गमें भट्टारक सोमकीर्ति और भट्टारक विजयसेनके शिष्य ब्रह्मकलामें षट्कर्मोपदेशकी प्रतिलिपि करायी। इसी संवत्में नागकुमार चरितकी प्रति करायी गयी। संवत् १५६९ में गोपाचलमें श्रावक सिरीमलके पुत्र चतरुने ४४ पद्योंमें नेमीश्वर गीतकी रचना की।
इस प्रकार तोमर-वंशके राज्य-कालमें गोपाचलमें जैनोंके विविध सांस्कृतिक कार्य हुए। इस कालमें निर्मित मूर्तियोंके लेखोंमें गोपाचलके नरेशोंका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। जिन ग्रन्थोंका इस कालमें निर्माण हुआ या प्रतिलिपि हुई, उनकी प्रशस्तिमें भी इन नरेशोंका उल्लेख सम्मानके साथ किया गया है। ग्वालियरमें भट्टारक-पीठ
___ ग्वालियर काष्ठा संघ माथुर गच्छका भट्टारक-पीठ था। ग्रन्थ-प्रशस्तियों और मूर्ति-लेखोंमें इस संघके साथ काष्ठासंघ माथुरान्वय बलात्कार गण सरस्वती गच्छका प्रयोग मिलता है। ग्वालियरके भट्टारकोंका उल्लेख कविवर रइधूके ग्रन्थों, मूर्तिलेखों और पट्टावलियोंमें प्राप्त होता है। उनसे प्रतीत होता है कि इस शाखाका प्रारम्भ माधवसेनसे हआ। भद्रारक माधवसेनके दो शिष्य थे-उद्धरसेन और विजयसेनकी शिष्य-परम्परामें देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, यशःकीर्ति, मलयकीर्ति, गुणभद्र और गुणचन्द्र भट्टारक हुए।
भट्टारक गुणचन्द्रके शिष्य ब्रह्ममण्डनने संवत् १५७६ में सोनपतमें इब्राहीम लोदीके शासनकालमें स्तोत्रादिका एक गुटका लिखा था। उसकी प्रशस्तिमें अपने गुरुओंकी पट्टावलीका उल्लेख इस प्रकार किया है___'स्वस्तिश्री विक्रमाकं संवत्सर १५७६ जेठ वदि १ पडिवा शुक्र दिने कुरुजांगले सुवर्णपथनाम्नि सदर्गे सिकंदरसाहि तत्पूत्र सुल्तान इब्राहिम राज्य प्रवर्तमाने काष्ठासंघ माथुर पुष्करगणे आचार्य श्री माहवसेनदेवाः तत्पट्टे भ. उद्धरसेन देवाः तत्पट्टे भ. देवसेन देवाः तत्पट्टे भ. विमलसेन देवाः तत्पट्टे भ. धर्मसेन देवाः तत्पट्टे भ. भावसेन देवाः तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. गुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. यशःकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. मलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्री गुणभद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणचन्द्र तच्छिष्य ब्रह्मांडण एषां गुरुणामाम्नाये....'
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