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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वेदीमें दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तियां विराजमान हैं, जिनमें एक मूर्ति सप्तफणमण्डित भगवान् पावनाथकी है। मध्यमें ६ फुट ८ इंच लम्बा आसन है, जिसपर कोई मूर्ति विराजमान नहीं है। दक्षिणकी भीतमें पांच वेदियां हैं, जिनमें दोके स्थान रिक्त हैं। केवल दो दिगम्बर जैन मूर्तियां विद्यमान हैं। लगता है, शेष मूर्तियां आततायियोंने नष्ट कर दी। - इस गढ़में जितनी मूर्तियाँ बनी हुई हैं, उनका निर्माण महाराज डूंगरसिंह और कीर्तिसिंहके शासन-कालके ५५ वर्षों में हो पाया था। मूर्तियोंके निर्माणका प्रारम्भ तो महाराज डूंगरसिंहके कालमें ही हो गया, किन्तु मूर्तियोंका निर्माण अधिकांशतः महाराज कीर्तिसिंहके कालमें पूर्ण हुआ। महाराज इंगरसिंहके शासनकालमें तो पहाड़की ऊबड़-खाबड़, आड़ी-तिरछी शिलाओं और चट्टानोंको छेनी-हथौड़ोंकी सहायतासे साफ और चिकना बनानेका उपक्रम चलता रहा। फिर कलाकारोंने चट्टानोंके कठिन हृदयोंको भेदकर उनके भीतरसे सौम्यता, शान्ति और वीतरागताको प्रतिमाके मुखपर अंकित करनेमें सफलता प्राप्त की। सारे पर्वतको उधेड़कर जिनेन्द्र प्रभुके विशाल और कमनीय रूपको उजागर करने में कलाकारने पूर्णतः सफलता प्राप्त की। उन्होंने सम्पूर्ण दुर्गको जैन प्रतिमाओंका भव्य मन्दिर बना दिया। प्रतिमाओंकी इस विशालतामें भी कलाकारकी छेनी और हथौड़ा चूके नहीं हैं और सब कहीं समुचित रूपमें भावनाओं और रेखाओं तकका उभार हुआ है। यह कलाकारोंके नैपुण्यको प्रदर्शित करनेके लिए पर्याप्त है।
सुविधाके लिए ग्वालियर किलेकी इन मूर्तियोंको हम पांच भागोंमें बांट सकते हैं(१) उरवासी समूह, (२) दक्षिण-पश्चिम समूह, ( ३ ) दक्षिण-पूर्व समूह, (४) उत्तर-पश्चिम । समूह और ( ५ ) उत्तर-पूर्व समूह। इनमें उरवाही समूह और दक्षिण-पूर्व समूह अत्यन्त महत्त्व
पूर्ण हैं । उरवाही समूह अपनी विशालताके कारण तथा दक्षिण-पूर्व समूह अलंकृत कलाके कारण सबको अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं।
इन मूर्तियोंकी जानकारीके लिए इनके सम्बन्धमें संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है। - इस पर्वतपर कुल जैन मूर्तियोंकी संख्या १५०० के लगभग है। इनमें ६ इंचसे लेकर ५७ फुट तककी मूर्तियां सम्मिलित हैं। यहाँकी सबसे विशाल मूर्ति भगवान् आदिनाथकी है जो उरवाही दरवाजेके बाहर है, खड्गासन मुद्रामें है और ५७ फुट ऊंची है। इसके पैरोंकी लम्बाई ९ फुट है। श्वेताम्बर आचार्य शीलविजय और आचार्य सौभाग्यविजयने अपनी तीर्थमालामें इस मूर्तिको बावनगजा बताया है और बाबरने अपने आत्मचरित (बाबरनामा) में इस मूर्तिको ४० फूटका लिखा है, किन्तु ये दोनों ही धारणाएँ गलत हैं । एक पत्थरकी बावड़ीमें सुपाश्वनाथकी पद्मासन प्रतिमा है जो ३४ फुट ऊँची और ३० फुट चौड़ी है । पद्मासन प्रतिमाओंमें यह भारतमें सबसे विशाल है।
महावीर धर्मशाला नयी सड़कसे किलेका उरवाही द्वार लगभग ६ किलोमीटर है। किलेकी बाहरी दीवारमें कुछ अर्धनिर्मित मूर्तियां बनी हुई हैं। सम्भवतः मूर्तियाँ बनानेकी योजना थी, किन्तु किसी कारणवश छत्र आदि खोदकर छोड़ दिया गया।
बायीं ओरको सर्वप्रथम पहाड़में तीन खड्गासन मूर्तियां मिलती हैं। तीनों कमलासनपर खड़ी हैं। तीनों मूर्तियोंके मध्य स्थानोंमें शिलालेख उत्कीर्ण हैं। पहाड़के सभी शिलालेख देना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यहां केवल एक शिलालेख जानकारीके लिए दिया जा रहा है
"सं. १५१० वर्षे माघ सुदी ८ सोमे गोपालदुर्गे तोमरवंशान्वये महाराजाधिराज राजा श्री डूंगरेन्द्रदेव राज्य पवित्रमाने श्री काष्ठाष्ठासंघ माथुरान्वये भट्टारक श्री गुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री यशकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री मलयकीर्ति देवास्ततो भट्टारक गुणभद्रदेव पंडितवयं रइधू तदाम्नाये