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मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
३९ विन्यास दर्शनीय है। कहते हैं, इस राजप्रासादमें लगे प्रत्येक पत्थरपर छत्तीस दिन तक खुदाईका काम किया गया। मानसिंह ललित कलाओंका बड़ा प्रेमी था। उसने संगीतको प्रोत्साहन देनेके लिए एक संगीत महाविद्यालयको भी स्थापना की थी। बादशाह अकबरके दरबारके नवरत्नोंमें प्रसिद्ध गायक तानसेन इसी विद्यालयकी देन था। मानसिंह स्वयं भी गायन-कलामें निष्णात था । उसने तथा उसके प्रोत्साहनपर अन्य गायकोंने उस समय कई नये रागोंका आविष्कार किया जो बादमें बड़े लोकप्रिय हो गये।
इस महलके नीचेके भागमें एक जौहर कुण्ड भी बना हुआ है। कहा जाता है कि जब मुसलमानोंने इस दुर्गपर अधिकार कर लिया तो रानियों तथा अन्य स्त्रियोंने इस कुण्डमें आग जला लीं और उसमें कूदकर अपने शीलकी रक्षा की थीं। यहींपर मुगल बादशाह औरंगजेबने अपने भाई मुरादको कैद करके रखा और फाँसी दी थी। उसने यहींपर अपने पुत्र सुलतान मुहम्मद, दाराके पुत्र सुलेमान शिकोह आदि परिवार-जनोंको बन्दी बनाकर रखा और उन्हें नाना प्रकारकी क्रूर यातनाएँ देकर मार डाला।
मानसिंह महलका पश्चिमी भाग ३०० फुट तथा दक्षिणी भाग १५० फुट लम्बा और लगभग ६० फुट ऊँचा है। इसको दीवारें नीले, हरे और पीले रंगकी कारीगरीसे मण्डित हैं। इसकी बाहरी दीवारपर नानाविध देवताओंकी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। पाँच तीर्थंकर मूर्तियां भी हैं। इनमें एक खड्गासन तीर्थंकर मूर्ति विशाल है।
इस महलसे थोड़ा आगे चलनेपर गूजरी महल बना हुआ है। वह महल राजा मानसिंहने अपनी प्रियतमा रानी मृगनयनीके लिए बनवाया था। आजकल इस महलमें सरकारी संग्रहालय है।
गूजरी महलसे ग्वालियर गेट होते हुए एक पत्थरकी बावड़ीपर जाते हैं। यह स्थान फूलबाग गेटके पास है। ग्वालियर गेटसे यह स्थान लगभग २-३ कि. मी. है। सड़कसे किलेकी बाहरी दीवार तक, जहाँ यह स्थान है, २ फलाँगकी चढ़ाई है। मार्ग पक्का है, किन्तु चढ़ाई थका देनेवाली है। यहाँ किलेके प्राचीरके बाहरी भागमें, पर्वतके एक कोने में एक ही पत्थरकी खुदी हुई प्राकृतिक बावड़ी है। यह लगभग २० फुट लम्बी और इतनी ही गहरी है। इसमें किसी अज्ञात स्रोतसे जल आता है और बारहों महीने निरन्तर आता रहता है। जल शीतल एवं मीठा है। बावड़ी एक प्राकृतिक गुफामें बनी हुई है। दुर्गके इस प्राचीरके बाहर विशाल अवगाहनावाली खड्गासन और पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ पहाड़में बनायी गयी हैं। यह दक्षिण-पूर्व समूह कहलाता है। यह समूह समुन्नत मूर्ति-कलाकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह समूह लगभग २ फलांगके क्षेत्रमें फैला हुआ है। इस समूहकी मूर्तियाँ उरवाही द्वारकी मूर्तियोंकी अपेक्षा अधिक कलापूर्ण, सुघड़ और सौम्य हैं। इस समूहकी मूर्तियाँ अत्यन्त कुशल, अनुभवी और निष्णात शिल्पियों द्वारा निर्मित हुई प्रतीत होती हैं। मूर्तियोंका सौष्ठव, अंगविन्यास और भावाभिव्यंजना सभी कलाकारोंकी निपुणताके मूक साक्षी हैं। यहाँ मूर्तियोंके पीछेकी दीवारको तराशकर चिकना बनाया गया है, मूर्तियोंके अभिषेकके लिए सोपान बने हुए हैं तथा मूर्तियोंकी ग्रीवाके सामने पाषाण-पट्टिकाएँ बनी हुई हैं जिनपर खड़े होकर सुगमतासे अभिषेक किया जा सकता है। ९ मूर्तियोंके आगे ऊँची दीवार उठाकर और मूर्तियोंके ऊपर शिखर बनाकर जिनालयका रूप प्रदान किया गया है। मूर्तियोंके पीछे भामण्डल, सिरके ऊपर छतमें चन्दोवा और हाथोंमें कमल बने हुए हैं और वे अत्यन्त कलापूर्ण हैं। प्रत्येक मूर्तिके दोनों ओर गजलक्ष्मीका अंकन किया गया है, जिनमें गजराज अपनी सूंडमें कलश लिये हुए भगवान्का अभिषेक करते दिखाई पड़ते हैं।