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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिर समूहमें यही मन्दिर प्राचीनतम रहा हो। घण्टाई मन्दिरी रचना शैलीके आधारपर इसे भी फर्गुसन साहबने जैन स्वीकार किया है। यहाँ प्राप्त खण्डित लेखकी लिपिके आधारपर कनिधम साहबने इसे छठी-सातवीं शताब्दीका माना है। फर्गुसन साहब भी इसकी रचना शैलीके आधारपर यही काल मानते हैं।
मध्यप्रदेशके तीर्थोपर गहरा चिन्तन करनेपर उनकी एक विशेषता और सामने आती है। यहाँके कुछ तीर्थ तो वास्तवमें मन्दिरोंके नगर हैं। जैसे सोनागिरमें छतरियों सहित १०० मन्दिर हैं । इसी प्रकार पपौरामें १०७, कुण्डलपुरमें ६०, रेशंदीगिरिमें ५२, मढ़ियामें ३२, द्रोणगिरि में २९, थूबौनमें २५ और पटनागंजमें २५ मन्दिर हैं। लगता है, ये तीर्थ मन्दिरोंकी बस्तियों हों। इन स्थानोंपर मन्दिरोंके अतिरिक्त प्रायः और कोई बस्ती नहीं हैं। यदि है भी तो नाममात्रको इसलिए भी इन्हें मन्दिरोंका नगर या बस्ती कहा जा सकता है। इन तीर्थोंमें पपारा और पटनामंजको छोड़कर शेष सभी मन्दिर पर्वतोंके ऊपर हैं। पर्वतोंपर ऊपर-नीचे छितराये हुए इन मन्दिरोंके कारण अद्भत दृश्य प्रतीत होता है। निर्जन एकान्तमें नीरव खड़े हुए और अपने समुन्नत शिखरोंसें आकाशसे बतियाते ये मन्दिर विचित्र रहस्यमय वातावरणकी सृष्टि करते हैं।
__पपौरामें मन्दिरोंकी अद्भुत चौबीसी बनी हुई है। मध्यवर्ती मन्दिरको चारों दिशाओं में छह-छह मन्दिर हैं। ऐसी चौबीसी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। वस्तुतः यह किसी उर्वर कल्पनाशील मस्तिष्ककी देन है।
भोयरे भी मन्दिरोंके ही लघु संस्करण हैं। उनकी कल्पना आपत्कालमें की गयी प्रतीत होती है। जब विदेशी आक्रान्ता मन्दिरों और मूर्तियोंका विध्वंस करने लगे, उस समय मूतियोंकी सुरक्षाके लिए भूगर्भ में भोयरे निर्मित हुए। वहां मूर्तियां पहुंचा दी गयीं। वास्तवमें भोयरों में रखी हुई मूर्तियां आक्रान्ताओंकी दृष्टिसे बची रहीं, इसलिए वे सुरक्षित रहीं। विशेष शान्तिपूर्ण वातावरणकी सृष्टिके लिए भी सम्भवतः ऐसे भोंयरोंका निर्माण होता रहा हो। मध्यप्रदेशमें इन भोयरोंको संख्या केवल ७ हैं। ये भोयरे सोनागिरि, पपौरा, अहार, पनिहार, बीना-बारहा, बन्धा क्षेत्रोंमें बने हुए हैं। पपौरामें २ भोयरे हैं। इन भोयरों में कुछ मूर्तियां. ११-१२वीं शताब्दीकी उपलब्ध होती हैं । भोयरों में रखी हुई मूर्तियां प्रायः अन्य मन्दिरोंसे लायी गयी हैं।
चैत्यस्तम्भ और मानस्तम्भ भी जेन स्थापत्य और जैन मन्दिर शिल्पमें विशिष्ट स्थान रखते हैं। जयसिंहपुरा दिगम्बर जैन मन्दिर उज्जैनके संग्रहालयमें अजीतखो, गुना, इन्दरगढ़, और ईसागढ़से लाये चार चैत्यस्तम्भ सुरक्षित हैं। इनमें चारों दिशाओंमें पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान हैं। विदिशासे उपलब्ध रामगुप्त-अभिलेखवाली प्रतिमाओंसे इनका शैलीमत साम्य प्रतीत होता है। इसलिए पुरातत्वविद् इन्हें गुप्तकालीन मानते हैं। सोनागिरि, पटनागंज, द्रोणगिरि आदि तीर्थोपर भी चैत्यस्तम्भ मिलते हैं।
- इस प्रदेशमें मानस्तम्भ विशेष प्राचीन नहीं मिले हैं। प्राचीन कालमें मानस्तम्मोंकी परम्परा रही है। कहाऊँ ( देवरिया ) में उपलब्ध समुद्रगुप्तकालीन मानस्तम्भसे इसकी पुष्टि होती है। देवगढ़में ११वीं शताब्दीके बने हुए कई मानस्तम्भ अबतक मिलते हैं। किन्तु मध्यप्रदेशमें मध्यकाल तकके २-४ ही मानस्तम्भ मिले हैं, शेष जो विद्यमान हैं, वे सब उत्तरकालीन है। बजयगढ़ किलेमें बना हुआ मानस्तम्भ चन्देल राजाओंके कालका है। अतः यह ११-१२वीं शताब्दीका माना जाता है। यह मानस्तम्भ अद्भुत है। इसके ऊपर सैकड़ों तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। खनियाधानाके तिकट तेरही ग्राममें १०वीं शताब्दीके दो जिन मन्दिर हैं। एक मानस्तम्भ भी