Book Title: Bhagwati Sutra Part 05
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 727
________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श.७ उ. ९ सू०२ महाशिलाकण्टकसंग्रामनिरूपणम् ६९५ प्रत्यर्पयत=निवेदयत 'तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रना एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ट जाव अंजलिं कटु ‘एवं सामी, तहत्ति' आणाए विणएणं वयणं पडिमुणंति' ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः कुणिकेन राज्ञा एवमुक्तप्रकारेण उक्ताः आज्ञप्ताः सन्तः हृष्ट-तुष्टाः हप-तोषयुक्ताः यावत्-प्रसन्न चेतसः अञ्जलिं कृत्वा 'एवं स्वामिन् ! तथेति' आज्ञया विनयेन वचनं पतिशृण्वन्ति, 'पडिसुणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमइकप्पणा-वि-कप्पेहि सुनिउणेहि' प्रतिश्रुत्य क्षिप्रमेव छेकाचार्योपदेशमतिविकल्पः, छेको विदग्धः निपुण इत्यर्थः, यः आचार्यः शिल्पोपदेशदाता, तस्योपदेशात् या मतिकल्पना:विकल्पास्तैः मुनिपुणैः ‘एवं जहा उबवाइए जाव भीमं संगामिय अउज्झं उदाइं इत्थिराय पडिकप्पे ति' एवं यथा-औपपातिके सूत्रे यावत्-कथनानुसारं खबर दो। 'तएणं ते कोडुंबियपुरिमा कोणिएणं रना एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठ जाव अंजलिं कट्ट एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति' ऐसा कूणिक राजा का वचन सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषोंने हर्ष और तोष से युक्त-यावत् प्रसन्नचित्त होते हुए दोनों हाथों को जोडकर हे स्वामिन् आपकी आज्ञा प्रमाण है' ऐसा कहा और कह कर आज्ञा के अनुसार विनय के साथ उनके बचनों को सुना 'पडिसुणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमइकप्पणा-वि- कप्पेहिं सुनिउणेहिं एवं जहा उववाइए जाव भीमं संगामियं अउज्झं उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेति' सुनकर निपुण शिल्पोपदेशदाता आचार्य के उपदेश से जन्य मति की कल्पना के अनुसार उन्होंने विचार२ कर बहुत ही अच्छी तरह से जैसा कि औपपातिक सूत्र में कहा गया कोडु वियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एणं वुत्ता समाणा हट्टतु जाव अजलिं कटु एन सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिमुणंति' ४ि नi એવાં વચન સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરુષને અતિશય ઉષ અને સંતોષ થયો. તેમનાં મનમયૂર હર્ષથી નાચી ઊઠયાં તેમણે બન્ને હાથ જોડીને અતિશય વિનયપૂર્વક આ પ્રમાણે કહ્યું- “હે રાજન ! આપની આજ્ઞા પ્રમાણે જ કરશુ, અને એ પ્રમાણે કહીને आज्ञानुसार विनयपूर्व तमना वयनाने साया पडिमणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमइकप्पणा-वि-कप्पेहिं मुनिउणेहिं एवं जहा उबवाइए जाव भीमं संगामिय अउज्झ उदाई हत्थिराय पडिकप्पेति' ना qयनाने સાભળીને નિપુણ શિપદેશદાતા આચાર્યના ઉપદેશજન્ય બુદ્ધિની કલ્પના પ્રમાણે વિચાર કરી કરીને તેમણે ઉદાયી હસ્તિરાજને સુસજ્જિત કર્યો તેનું વર્ણન ઔપપાતિક

Loading...

Page Navigation
1 ... 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880