Book Title: Bhagwati Sutra Part 05
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 857
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.१० सू.३ शुभाशुभकर्मफलनिरूपणम् ८२५ परिणमति परिणाम प्राप्नोति, “एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाडवाए, जाव मिच्छादसणसल्ले' हे कालोदायिन् ! एवमेव तथैव जीवानां माणातिपातः यावत्-मिश्यादर्शनशल्यम् । 'तस्स णं आवाए भद्दए भवइ' तस्य खलु प्राणातिपातादेः आपात: आरम्भकालिकः संसर्गः भद्रका शोभनः रमणीयो भवति, आदावेव मुन्दरो भवति । 'तओ पच्छा विपरिणममाणे, विपरिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमइ' ततः पश्चात् विपरिणमत् विपरिणमत् पौनःपुन्येन दुःखादिपरिणति प्राप्नुवत् दूरूपतया= कुत्सितरूपतया. यावत्-दुर्गन्धनया, दूरसतया, दुःस्पर्शतया दुवर्णतया दुःखतया नो मुखतया भूयो भूयः परिणमति । तदुपसंहरनाह-'एवं खलु कालोदायिन् ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कन्जंति' हे जाता है, वर्ण उसका पहिले की अपेक्षा कुत्सित हो जाता है. म्पर्श उसका खराब बन जाता है। खाया गया वह भोजन दुःखरूप में बदल जाता है। सुखरूप में वह परिणामित नहीं होता है। इसी तरह से 'कालोदाई' कालोदायिन् ! जीवों के द्वारा किये गये प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्यतक के जितने भी पाप हैं वे सब 'आवाए भद्दए भवई' आपात समय में आरंभकाल में सेवन करते समय बडे ही सुहावने और लुभावने लगते हैं, 'तओपच्छा विपरिणममाणेदुरूवत्ताए जाव भुजोरपरिणमई' परन्तु जब इनका परिणाम काल आता है तब इनका परिणमन उस समय बार २ दुःखादिरूप से होता हुआ कुत्सितरूप में यावत् दुर्गन्धरूप में, दुरसरूप में, दुस्पर्शरूप में, दुर्वर्णरूप में, दुःखरूप में ही चलता रहता है, सुखादिरूप में नहीं चलता है। ‘एवं खलु कालोदाई! जीवाणं કુત્સિત થઈ જાય છે અને તેને સ્પર્શ પણ ખરાબ બની જાય છે. આ રીતે તે ભજન दु.५३ परिणभे छ - सुम३५ परिणभतु नया 'कालोदाई' के सहायी। એ જ પ્રમાણે છેવો દ્વારા કરવામાં આવેલા પ્રાણાતિપાતથી લઈને મિથ્યાદર્શન શલ્ય सुधीना टना पाप छ, ते मया पापा 'आवाए भदए भवई' सापाताणे-मामाणेसेवन ४२ती मत त ! K२ मने सोनामji सा छ, 'तओ पच्छा विपरिमाणे२ दुरूवत्ताए जाव भुज्जोर परिणमई' ५२-तु न्यारे भने। परिणाम सावे - જ્યારે તે ઉદયમાં આવે છે... ત્યારે તેમનુ પરિણમન વારંવાર દુ ખાદિરૂપે થતું રહે છે, તે પરિણમન કુત્સિતરૂપે દુર્ગ ધરૂપે, દુરસરૂપે, દુસ્પર્શરૂપે, દુર્વણરૂપે અને દુ ખરૂપે यादया १ ४२ छ, सुभा३ि यास्या ४२तु नथी ‘एवं खलु कालोदायी ! जीवाणं

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